Gramin samaj mein Vikas: Gramin samaj class 12 sociology chapter 4 ncert solutions in Hindi. JAC Board Questions Answers Samajshastra Class 12. Exam ki taiyari Jharkhand Pathshal se karen. Important questions for JAC Board.
gramin samaj mein Vikas Avn Parivartan: अति लघु स्तरीय प्रश्न-उत्तर
Q.1.”भारत का आर्थिक विकास कृषि विकास पर निर्भर है।” स्पष्ट कीजिए।
Ans:भारत गांवो का देश है। इसमें 6 लाख से अधिक गांव है। लोगों का मुख्य आर्थिक कार्य कृषि है। कृषि गांवों में लोगों का मुख्य व्यवसाय है। 100 करोड़ से अधिक लोगों को खाद्य सामग्री खेती से प्राप्त होती है। अत: हम कह सकते हैं कि भारत का आर्थिक विकास मूलतः कृषि विकास पर निर्भर करता है।
Q.2.भारत में भूमि सुधार के उद्देश्य बताइए।
Ans:भारत में भूमि सुधार के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार हैं –
- समानतावादी कृषि संबंधों की स्थापना।
- भूम संबंधों में शोषण को समाप्त करना।
- काश्तकारों को जमीन उपलब्ध कराना।
- गांव के गरीब लोगों के भू – धारण अधिकार को बढ़ावा।
- कृषि उत्पादन में वृद्धि करना।
- कृषि अर्थव्यवस्था का विविधीकरण करना।
- कृषि क्षेत्र से बिचौलियों का उन्मूलन करना।
Q.3.भूमि – सुधार से क्या अभिप्राय है?
Ans:भूमि व्यवस्था में संबंधित संस्थाओं और कृषि संगठन में किसी भी सुधार को भूमि सुधार करते हैं। भूमि सुधार की अवधारणा से स्पष्ट है कि भूमि सुधार को जमीन के पूनर्वितरण तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए बल्कि कृषि में सुधार के उपायो को भी उसमें शामिल करना चाहिए।
Q.4.जमींदारी प्रथा से क्या अभिप्राय है?
Ans:लार्ड कार्नवालिस ने भारत में जमींदारी प्रथा आरंभ की। भू – राजस्व वसूल करने वाले अधिकारियों का पद बढ़ाकर उन्हें भू – स्वामी या जमींदार बना दिया गया। ये जमींदार सरकार को निश्चित मालगुजारी जमा करते थे और कृषकों का शोषण करते थे। वे अधिक लगान वसूल करते थे, परंतु भूमि सुधार के लिए कोई कार्य नहीं करते थे।
Q.5.रैयतवाड़ी प्रथा से क्या अभिप्राय है?
Ans:लार्ड विलियम बेंटिक ने रैयतवाड़ी प्रथा चलाई। इसमें रैयत भूमिधारी जोतदार या कृषक थे। इनका सीधा संबंध ब्रिटिश सरकार के साथ था। पहला रैयतवाड़ी बंदोबस्त सन् 1792 में मद्रास में लागू हुआ। इसमें रैयतों को जमीनों के अनुपात में निर्धारित किराया या लगान सीधे सरकार को देना पड़ता था।
Q.6.महालवाड़ी प्रथा से आप क्या समझते हैं?
Ans:इसमें ग्रामीण समुदाय का भूमि पर संयुक्त स्वामित्व होता था और गांव के सभी सदस्य संयुक्त रूप से लगान चुकाने के लिए उत्तरदायी रहते थे।
Q.7.स्वतंत्रता के पश्चात भूमि सुधार कार्यक्रमों का उल्लेख कीजिए।
Ans:स्वतंत्रता के पश्चात भूमि सुधार कार्यक्रमो का उल्लेख इस प्रकार हैं –
- जमींदारी प्रथा समाप्त कर बिचौलियों का उन्मूलन करना।
- काश्तकारी सुधार जिसमें नियमित मजदूरी, काश्तकारी सुरक्षा, काश्तकारों को भूमि खरीदने का अधिकार आदि।
- कृषि भूमि की उच्चतम सीमा का निर्धारण करना।
- जोत की चकबंदी करना।
- भू – अभिलेखों का नवीनीकरण और आधुनिकीकरण करना।
Q.8.हरित क्रांति के तत्वों का उल्लेख कीजिए।
Ans:हरित क्रांति के मुख्य तत्व निम्नलिखित हैं –
- अधिक उपज देने वाले बीजों का प्रयोग।
- वैज्ञानिक खाद का प्रयोग।
- कृषि में आधुनिक उपकरण व संयंत्रों का प्रयोग।
- कीटनाशकों का प्रयोग।
- सिंचाई की व्यवस्था।
- कृषि मूल्य का निर्धारण और कृषि ऋण व्यवस्था।
Q.9.हरित क्रांति से क्या तात्पर्य हैं?
Ans:सामान्य तौर पर हरित क्रांति का अभिप्राय कृषि व्यवसाय में क्रांतिकारी नीतियों द्वारा सर्वागीण विकास से है और इसका अंतिम लक्ष्य कृषि फसलों का अधिकतम उत्पादन होता है। हरित क्रांति कृषि व्यवसाय में अधिक – से – अधिक और अच्छा अन्य उपजाने का एक प्रभाव आंदोलन है ।
Q.10.भारत में हरित क्रांति लाने में किसका योगदान है?
Ans:डॉ. एम.एस. स्वामिनाथ के प्रयासों से 1960 के दशक में नए बीजों की खोज की गई जिसके फलस्वरूप खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता आई। गेंहू के उत्पादन में 2.5 गुना वृद्धि तथा धान के उत्पादन में 3 गुना वृद्धि हुई।
Q.11.भूमि चकबंदी से क्या अभिप्राय है?
Ans:भूमि के छोटे-छोटे और बिखरे खेतों पर सिंचाई की व्यवस्था करना कठिन होता है। अतः छोटे-छोटे भूमि में टुकड़ों को मिलाकर किसानों को एक स्थान पर देना भूमि की चकबंदी कहलाता है। इससे खेत पर मशीनों का प्रयोग किया जा सकता है। साथ ही सिंचाई की व्यवस्था और भूमि की देख – रेख की जा सकती है।
Q.12.हरित क्रांति के क्या परिणाम हैं?
Ans:आज हरित क्रांति केवल खाद्यान्न आंदोलन ही नहीं है बल्कि ग्रामीण, आर्थिक, सामाजिक उत्थान की क्रांति है। हरित क्रांति के निम्न परिणाम इस प्रकार हैं –
- किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार आया है।
- बहुत – से किसान गरीबी की रेखा से ऊपर उठे हैं।
- रोजगार में वृद्धि हुई है।
- धनी और निर्धन किसानों की आर्थिक स्थिति में अंतर आ गया है।
- पूंजीपति किसानों का एक नया वर्ग उत्पन्न हो गया है।
- गेहूं और चावल के उत्पादन में वृद्धि हुई है।
Q.13.भूमि संबंधी नवीनतम रिकार्ड की आवश्यकता क्यों है?
Ans:भारत में भूमि के अधिकारों से संबंधित आलेख अत्यंत दोषपूर्ण और असंतोषजनक है। सही और नवीनतम रिकार्डो की उपलब्धता बनी रहती है। इसीलिए प्रमाणित भूमि रिकार्ड का नवीनीकरण भूमि सुधार कार्यक्रम का हिस्सा बना दिया गया। पंचवर्षीय योजना के आलेख में कहा गया है कि ‘अनेक राज्यों के रिकॉर्ड, रैयत दर रैयत तथा बटाईदारो से संबंधित कोई सूचना नहीं देते। देश के अधिकतर राज्यों में अभी भी आधुनिकतम भूमि रिकॉर्ड नहीं है। बड़े भू – स्वामी इसका विरोध करते हैं। कई राज्यों में भूमि संबंधी रिकार्ड को सर्वेक्षण तथा बंदोबस्त के द्वारा आधुनिक बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं। भूमि दस्तावेजों को कंप्यूटरीकरण किया गया है।
Q.14.जोतों की चकबंदी से क्या अभिप्राय है ? भूमि की उत्पादकता को बढ़ाने में चकबंदी किस प्रकार लाभकारी हैं?
Ans:भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटा होना भूमि का उपविभाजन कहलता है और जब ये टुकड़े अलग-अलग स्थानों पर बिखरे हुए होते हैं तो इसे भूमि का विखंडन कहते हैं। भूमि के छोटे-छोटे टुकड़े कृषि विकास में बाधक होते हैं। बहुत – सी भूमि खेतों की बाड बनाने में खराब हो जाती है। किसान अपने संसाधनों का प्रयोग करने में असमर्थ रहता है। वह उनका उचित प्रयोग नहीं कर पाता। सिंचाई परियोजनाओं का लाभ भी उन्हें नहीं मिल पाता। इसलिए छोटे-छोटे और बिखरे हुए खेतों को मिलाकर एक स्थान पर कर देने से किसान भूमि का प्रयोग ठीक प्रकार से कर पाता है और उत्पादन में भी वृद्धि होते हैं। नये कृषि यंत्रों का प्रयोग करके कृषि की आधुनिक विधियों का प्रयोग में लाकर उत्पादकता में वृद्धि कर सकता है।
Q.15.स्वतंत्रता के पश्चात भूमि – सुधार के क्या उद्देश्य थे?
Ans:स्वतंत्रता के तत्काल बाद भूमि सुधार पर काफी जोर दिया गया। भूमि सुधार को भूमि कानून के जरिए प्रारंभ करने की रणनीति अपनाई गई। भूमि सुधार के प्रारंभिक उद्देश्य निम्नलिखित थे –
- कृषि संरचना में सभी रुकावटो को दूर करना।
- कृषि व्यवस्था में शोषण और सामाजिक अन्याय के सभी तत्वों का निष्कासन करना ताकि समाज के सभी वर्गों को अवसर की समानता मिल सके। भारत में स्वतंत्रता के पश्चात कृषि अर्थव्यवस्था में व्याप्त असमानताओ को कम करने की दृष्टि से ही भूमि सुधार कार्यक्रम प्रारंभ किये गये। इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित कार्य किए गए –
- (a) राज्य एवं जमीन जोतने वालो के बीच सभी प्रकार के मध्यस्थ वर्गों का उन्मूलन करना।
- (b) किसानों द्वारा खेती की जाने वाली भूमि पर उनके स्वामित्व का अधिकार प्रदान किया गया।
- (c) खेतों की जोत का सीमा निर्धारण।
- (d) कृषि में आधुनिक तकनीकों के प्रयोग को सुलभ बनाने की दृष्टि से जोतो की चकबंदी करना।
- (e) भूमि संबंधी रिकार्ड को तक संगत बनाना।
gramin samaj mein Vikas AVN Parivartan: लघु स्तरीय प्रश्न तथा उत्तर
Q.1.भूमि चकबंदी के पीछे क्या उद्देश्य था?
Ans:भूमि के छोटे-छोटे और बिखरे हुए होने की समस्या भूमि के उपविभाजन और विखंडन की समस्या कहलाती है। जब जनसंख्या वृद्धि के कारण भूमि के छोटे-छोटे टुकड़े करके उत्तराधिकारियों के बीच बांट दिये जाते हैं तो भूमि की जोत अनार्थिक हो जाती है। भूमि का बहुत – सा भाग मेंड व नाली आदि बनाने में बेकार हो जाता है। अलग-अलग खेतों की देखभाल नहीं हो पाती। पशुओं द्वारा फसल खराब की जाती है। हर खेत पर पानी पहुंचाना आसान नहीं है। किसानों में छोटी-छोटी बातों पर मुकदमेबाजी हो जाती है। कृषि के आधुनिक तरीकों को छोटे खेतों पर अपनाना कठिन होता है। छोटे किसान कृषि की आधुनिक तकनीक को भी प्रयोग में नहीं ला पाते। भूमि का छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजन कृषि विकास में एक महत्वपूर्ण बाधा रही है। अधिकतर खेत ना केवल छोटे हैं बल्कि दूर तक फैले हुए भी है। अतः सभी राज्यों में चकबंदी संबंधी कानून बनाए गए। एक किसान को जोत के अलग-अलग टुकड़ों को एक अथवा दो जगह पर एकत्र करके उनका उचित इस्तेमाल किया जा सकता है। जिन क्षेत्रों में सिंचाई की बेहतर सुविधाएं उपलब्ध है वहां चकबंदी से उत्पादन में वृद्धि हुई है। फसलों की सुविधा बढी है तथा जोत को आर्थिक बनाने में सफलता मिली है।
Q.2.भारत में भूमि सुधार के उद्देश्य क्या हैं?
Ans:भूमि सुधार के सामान्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं –
- सामाजिक तथा आर्थिक समानता – भूमि सुधार के पीछे सामाजिक न्याय तथा आर्थिक समानता की भावना हमेशा से रही है। भेदभाव और गरीबी को समाप्त करना भी आवश्यक है। अतः भूमि सुधार का उद्देश्य समानता और सामाजिक न्याय लाना तथा निर्धारण निर्धनता दूर करना।
- मध्यस्थों की समाप्ति – संसार के अधिकतर देशों ने दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात स्वतंत्रता प्राप्ति की। औपनिवेशिक काल में विदेशियों के स्वामित्व में भूसंपत्ति का स्वामित्व कुछ गिने-चुने लोगों के हाथ में था। भारत में जमींदारी व्यवस्था अंग्रेजी शासनकाल की देन थी। जब राष्ट्रवादी प्रेरणा जोर पकड़ने लगी तो जमींदारों के उन्मूलन की बात जोर पकड़ती गई और किसानों को शोषण से मुक्त कराने के लिए इन मध्यस्थों को हटाने की मांग ने जोर पकड़ लिया। अत: स्वतंत्रता के पश्चात जमींदारी उन्मूलन भूमि सुधार कार्यक्रमों के प्राथमिक चरण का एक लक्ष्य बन गया।
- लोकतंत्र की स्थापना के लिए – भूमि सुधार कार्यक्रम के पीछे लोकतंत्र की भावना भी काम करती रही है। स्वाधीनता और न्याय के लक्ष्य को प्रजातांत्रिक समाज में ही प्राप्त किया जा सकता है। निर्धन और वंचित नागरिक अपनी शिकायतों को लोकतंत्र के माध्यम से व्यक्त कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में सुधार के लिए एक वातावरण का निर्माण होता है।
- भूमि की उत्पादकता में वृद्धि – भूमि सुधार के प्रभावशाली उपायों को अपनाकर कृषि क्षेत्र का विकास भूमि की उत्पादकता को बढ़ाकर किया जा सकता है।
Q.3.भारत में राजनीति ने भूमि – सुधार कार्यक्रमों को किस प्रकार प्रभावित किया?
Ans:भारत में भूमि सुधार कार्यक्रमों के पीछे राजनीतिक वातावरण और राष्ट्रवादी विचारधारा का बहुत बड़ा हाथ रहा है। राष्ट्रीयता की भावना के विकास से ऐसी स्थितियों का निर्माण हुआ जिसमें सरकार के लिए भूमि सुधार के उपायों का बीड़ा उठाना अनिवार्य हो गया। स्वाधीनता संग्राम के दिनों में जनता की गरीबी और जमींदारों तथा सूदखोरो द्वारा किसानों के अत्यधिक शोषण ने राजनीतिक नेताओं का ध्यान अपनी और आकर्षित किया। 1936 में कांग्रेस अधिवेशन में पंडित नेहरू ने कृषक और राज्य के बीच के बिचौलियो के निष्कासन और उसके पश्चात सहकारी अथवा सामूहिक खेती की बात उठाई। 1936 में अखिल भारतीय किसान सभा ने जमींदारी उन्मूलन रैयतों के दखल – अधिकार, भूमिहीन मजदूरों के बीच परती जमीन के पुनर्वितरण आदि मांगों को उठाया गया। स्वामी सहजानंद सरस्वती ने नेतृत्व में किसान सभा आंदोलन, 1981का बारदोली सत्याग्रह तथा बंगाल का विभाजन आंदोलन ने सारे देश में किसानों और भूमि मालिकों के बीच संघर्षों को जन्म दिया। किसानों की शिकायतों के समाधान की योजना बनाने के लिए सरकार बाध्य हो गई और स्वतंत्रता के पश्चात भूमि सुधार कार्यक्रम प्रारंभ किए गए।
Q.4.स्वतंत्रता के पश्चात भारत में भूमि सुधार के कौन – से प्रारंभिक उद्देश्य थे?
Ans:स्वतंत्रता के तुरंत पश्चात सरकार ने भूमि सुधार कार्यक्रम को भूमि कानून के द्वारा प्रारंभ करने की रणनीति बनाई। इस संबंध में देश के विभिन्न राज्यों में विधान सभाओं द्वारा कानून बनाए गए। भारत में भूमि सुधार के प्रारंभिक उद्देश्य निम्नलिखित थे –
- कृषि व्यवस्था में व्याप्त शोषण और सामाजिक अन्याय के सभी तत्वों का निष्कासन ताकि समाज के सभी वर्गों को उन्नति के अवसर प्राप्त हो सके।
- कृषि संरचना में मौजूदा रुकावटो को हटाना जिससे उत्पादन में वृद्धि हो सके। अत: कृषि के आधुनिकीकरण तथा कृषि अर्थव्यवस्था में व्याप्त असमानताओं को घटाने की दृष्टि से ही भूमि सुधार कार्यक्रम प्रारंभ किए गए। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए निम्नलिखित कार्य किए गए –
- (a) राज्य और जमीन जोतने वालों के बीच सभी प्रकार के मध्यस्थ वर्गो का उन्मूलन करना।
- (b) किसानों द्वारा खेती की जाने वाली भूमि पर उनके स्वामित्व का अधिकार प्रदान करना।
- (c) खेतों की अधिकतम जोत का निर्धारण करना।
- (d) कृषि में आधुनिक तकनीकों के प्रयोग को सुलभ बनाने की दृष्टि से जोतों की चकबंदी करना।
- (e) भूमि संबंधी रिकॉर्ड को तर्क संगत बनाना।
Q.5.कृषि में काश्तकारी सुधारों से क्या अभिप्राय है?
Ans:कृषि जोत की अधिकतम सीमा निर्धारित करने का मूल उद्देश्य एक निश्चित सीमा से अधिक भूमि को वर्तमान भू – स्वामियों से लेकर भूमिहीनों के बीच वितरित करना था। यह पुनर्वितरण सामाजिक – आर्थिक न्याय के सिद्धांत पर आधारित है। भारत में भू स्वामित्व की असमानता बहुत अधिक पाई जाती है। स्वतंत्रता के समय ग्रामीण परिवारों में एक – चौथाई के पास कोई जमीन नहीं थी जबकि भू – स्वामियों के स्वामित्व में हजारों एकड़ जमीन थी। इस असंतुलन को दूर करने के लिए ही कृषि भूमि को जोतों का निर्धारण किया गया। सभी राज्यों में व्यक्ति अथवा परिवार के स्वामित्व में रहने वाले खेतों के आकार को नियंत्रित करने वाले कानून बनाए गए। निर्धारित सीमा से अधिक भूमि रखने की मनाही की गई। सीमा – निर्धारण से प्राप्त अतिरिक्त भूमि राज्य सरकार ने अधिकगृहीत करके समाज के कमजोर वर्गों को बांट दी। भूमि की अधिकतम सीमा निर्धारण में विभिन्न राज्यों में भिन्नता पाई जाती है। अधिकतम राज्यों में निर्धारित सीमा काफी ऊंची है। भूमि की गुणवत्ता के आधार पर तथा सिंचाई वाली भूमि और वर्षा पर आधारित भूमि के आधार पर भूमि की अधिकतम सीमा का निर्धारण किया गया। सीमा निर्धारण से प्राप्त अतिरिक्त भूमि भूमिहीनों में बांट दी गई। अब तक 64.84 लाख एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया गया है जिसमें से 52.99 लाख एकड़ जमीन का वितरण 55.10 लाख लोगों को किया गया जिसमें 36% अनुसूचित जाति के लोग तथा 15% अनुसूचित जनजाति के लोग हैं।
Q.6.जोत की भूमि के सीमा निर्धारण से क्या अभिप्राय है?
Ans:जोत की भूमि की सीमा निर्धारित करने का मूल उद्देश्य एक निश्चित सीमा से अधिक भूमि को वर्तमान भू – स्वामियों से लेकर भूमिहीनों के बीच विपरीत करना था। यह भूमि का पुनर्वितरण सामाजिक – आर्थिक न्याय के सिद्धांत पर आधारित है। स्वतंत्रता के समय ग्रामीण परिवारों में एक – चौथाई के पास जमीन होती थी जबकि बड़े किसानों और जमींदारों के पास हजारों एकड़ जमीन थी। इस असंतुलन को दूर करने के लिए ही कृषि जोतों का निर्धारण किया गया। भूमि की उच्चतम सीमा का अर्थ है कि “एक व्यक्ति या परिवार – अधिक – से अधिक कितनी योग्य भूमि का स्वामी हो सकता है। उच्चतम सीमा से अधिक भूस्वामियों से लेकर उन्हें बदले में मुआवजा दिया जायेगा।” इस प्रकार जो भूमि ली जायेगी, उसे छोटे किसानों, काश्तकारों या भूमिहीन कृषि मजदूरों में बांटा जा सकता है या उसे पंचायतों या सहकारी समितियों को दे दिया जायेगा। भूमि की उच्चतम सीमा का उद्देश्य भूमि के समान और उचित प्रयोग को प्रोत्साहन देना है। भारत में ये कदम खेती करने वाले काश्तकारों की स्थिति को सुधारने के लिए उठाए गए। लगान को निर्धारित किया गया है। भूधारण की सुरक्षा से भूस्वामियों द्वारा उन्हें बेदखल किए जाने से रोका गया है।
Q.7.जमींदारी प्रथा से क्या अभिप्राय है? यह किसानों के शोषण के लिए किस प्रकार उत्तरदायी थी?
Ans:ब्रिटिश शासकों ने जमीन से अधिकतम लगान प्राप्त करने के लिए तीन प्रकार के भूमि बंदोबस्त प्रारंभ कीए – (i) जमींदारी (ii) रैयतवाड़ी (iii) महालवाड़ी
जमींदारी व्यवस्था के अंतर्गत जमीन की संपत्ति का अधिकार स्थानीय लगान वसूल करने वालो को दिया गया, वे जमींदार कहलाये और ये सामान्यत: ऊंची जातियों के सदस्य थे। इस नये बंदोबस्त ने वास्तविक किसानों को रैयत बना दिया। भूमि व्यवस्था में से संरचनात्मक परिवर्तन ने राज्य और जमीन जोतने वालों के बीच बिचौलियों को खड़ा कर दिया। इन मध्यस्थों की भूमि प्रबंधन और सुधार में कोई अभिरुचि नहीं थी। जमींदारों को एक निश्चित राजस्व की रकम सरकार को देनी होती थी, परंतु किसानों से वसूली की कोई सीमा नहीं थी। समय-समय पर उनके अनेक कर वसूल किए जाते थे। यह व्यवस्था अन्यायपूर्ण थी और इसमें आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न दोनों ही विद्यमान थे। स्वतंत्रता के प्रारंभिक वर्षों में बिचौलियों का उन्मूलन भूमि सुधार का पहला लक्ष्य बना। देश के सभी भागों में जमींदारी प्रथा को कानून बनाकर समाप्त कर दिया गया। अब खेतिहरो को राज्य के साथ प्रत्यक्ष रूप से जोड़ दिया गया। खेतिहरो को भूमि के स्थायी अधिकार प्रदान कर दिए गए।
Q.8.हरित क्रांति के विरोध का वर्णन कीजिए।
Ans:हरित क्रांति के निम्नलिखित प्रभावों के कारण कई प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हुई है। ग्रामीण क्षेत्रों में असमानता बढ़ी है और हरित क्रांति का प्रभाव देश के सभी भागों में समान रूप से नहीं पडा है।
- सिमित फसलें (Limited Crops) – कृषि उत्पादन में होने वाली वृद्धि केवल कुछ फसलों तक सीमित है। इसका प्रभाव मुख्य रूप से गेहूं, ज्वार, मक्का और बाजरा पर पड़ा है। देश की 60% भूमि पर इसका प्रभाव नहीं पड़ा। चावल के उत्पादन पर इसका अधिक प्रभाव नहीं पड़ा है।
- सीमित क्षेत्र हरित (Limited Area) – हरित क्रांति का प्रभाव भारत के सभी राज्यों में एक समान नहीं पड़ा है। कुछ राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र और तमिलनाडु पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ा। इन राज्यों में कृषि उत्पादन में बहुत अधिक वृद्धि हुई परंतु उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उड़ीसा तथा सूखे प्रदेशों में हरित क्रांति अपना प्रभाव नहीं छोड़ सके।
- धनी किसानों को लाभ (Benefit to big Farmers) – जिन किसानों के पास 10 हेक्टेयर से अधिक भूमि थी और जो बीच, खाद, ट्यूबवेल, टैक्टर आदि खरीदने की सामर्थ्य रखते थे उन्हें अधिक लाभ पहुंचा। छोटे किसानों ने इस तकनीक को नहीं अपनाया।
- आर्थिक असमानता में वृद्धि (Increase in Economic Inequality) – हरित क्रांति ने धनी और निर्धन के बीच अंतर बढ़ा दिया।
Q.9.भूमिहीन कृषि मजदूरों तथा प्रवासन करने वाले मजदूरों के हितो की रक्षा करने के लिए क्या-क्या उपाय किए हैं? स्पष्ट कीजिए।
Ans:स्वतंत्रता के तत्काल बाद भूमि सुधार पर काफी जोर दिया गया। भूमि सुधार को भूमि कानून के जरिए प्रारंभ करने की रणनीति अपनाई गई। भूमि सुधार के प्रारंभिक उद्देश्य या उपाय निम्नलिखित थे –
- कृषि संरचना में सभी रूकावटों को दूर करना।
- कृषि व्यवस्था में शोषण और सामाजिक अन्याय के सभी तत्वों को निष्कासन करना ताकि समाज के सभी वर्गों को अवसर की समानता मिल सके। भारत में स्वतंत्रता के पश्चात कृषि अर्थव्यवस्था में व्याप्त असमानताओ को कम करने की दृष्टि से ही भूमि सुधार कार्यक्रम प्रारंभ किये गये। इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित कार्य किए गए –
- (a) राज्य एवं जमीन जोतने वालों के बीच सभी प्रकार के मध्यस्थ वर्गों का उन्मूलन किया गया।
- (b) किसानों द्वारा खेती की जाने वाली भूमि पर उनके स्वामित्व का अधिकार प्रदान किया गया।
- (c) खेतों की जोत का सीमा निर्धारण किया गया।
- (d) कृषि में आधुनिक तकनीकों के प्रयोग को सुलभ बनाने की दृष्टि से जोतों की चकबंदी किया गया।
- (e) भूमि संबंधी रिकार्ड को तर्कसंगत बनाया गया।
gramin samaj mein Vikas AVN Parivartan: दीर्घ स्तरीय प्रश्न तथा उत्तर
Q.1.हरित क्रांति से क्या अभिप्राय है? हरित क्रांति के प्रभाव बताइये।
Ans:भारत में योजनाओं की अवधि में अपनाए गए कृषि सुधारों के फलस्वरुप 1967 – 68 में अनाज के उत्पादन में 1966 – 67 की तुलना में लगभग 25% वृद्धि हुई। किसी एक वर्ष अनाज के उत्पादन में इतनी अधिक वृद्धि होना एक क्रांति के समान था। इसलिए अर्थशास्त्रियों ने आज के उत्पादन में होने वाली इस वृद्धि को हरित क्रांति का नाम दिया। हरित क्रांति से अभिप्राय कृषि उत्पादन में होने वाली भारी वृद्धि से है जो कृषि की नई नीति अपनाने के कारण हुई है। अतः हरित क्रांति शब्द सन् 1968 में होने वाले उस आश्चर्यजनक परिवर्तन के लिए प्रयोग में लाया जाता है जो भारत में खाद्यान्न के उत्पादन में हुआ और अब भी जारी है। हरित क्रांति के फलस्वरूप कृषि उत्पादन में काफी वृद्धि हुई और इसका प्रभाव दीर्घकाल में कृषि उत्पादन के ऊंचे स्तर को बनाए रखने में देखा जा सकता है। हरित क्रांति के प्रभाव : भारतीय अर्थव्यवस्था पर हरित क्रांति के बहुत ही आश्चर्यजनक परिणाम देखने को मिले हैं। इसके फलस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था को एक नया आधार प्राप्त हुआ है। हरित क्रांति के मुख्य प्रभाव निम्नलिखित है –
- उत्पादन में वृद्धि – हरित क्रांति के फलस्वरूप फसलों के उत्पादन में बड़ी तेजी से वृद्धि हुई। 1967- 68 के वर्ष जिसे हरित क्रांति का वर्ष कहा जाता है में अनाज का उत्पादन 950 लाख टन हो गया।
- किसानों की समृद्धि – हरित क्रांति के फलस्वरूप किसानों की अवस्था में काफी सुधार हुआ। उनका जीवन स्तर पहले से ऊंचा हो गया। कृषि एक लाभदायक व्यवसाय माना जाने लगा। किसानों की समृद्धि से औद्योगिक उत्पादो की मांग भी तेजी से बढ़ी है।
- पूंजीवादी खेती को प्रोत्साहन – वे किसान जिनके पास 10 हेक्टेयर या इससे अधिक भूमि थी और साधन संपन्न थे उन्होंने पूंजीवादी खेती को प्रोत्साहित किया।
- खाद्य सामग्री के आयात में कमी – हरित क्रांति के फलस्वरूप भारत में खाद्य सामग्री के मामले में आत्मनिर्भरता बढ़ी और विदेशों से खाद्य सामग्री का आयात कम हो गया।
- उद्योगों का विकास – हरित क्रांति के कारण उद्योगों के विकास पर काफी उचित प्रभाव पड़ा है। कृषि यंत्र उद्योगों का तेजी से विकास हुआ। रासायनिक खाद और ट्रैक्टर आदि बनाने के कारखाने खोले गये। डीजल इंजन, पंपसेट आदि के नये कारखाने स्थापित किए गए।
- आर्थिक विकास और स्थिरता का आधार – भारत जैसे देश में जहां 29% राष्ट्रीय आय कृषि से प्राप्त होती है, सरकारी बजट और यातायात पर कृषि का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। कृषित उत्पादन में होने वाली वृद्धि से देश में आर्थिक विकास, स्थिरता और आत्मनिर्भरता के उद्देश्य को पूरा करने में सहायता मिलती है।
- विचारधारा में परिवर्तन – भारत जैसे अल्पविकसित देश में जहां अधिकतर किसान अनपढ़, रूढ़िवादी और अंधविश्वासी हैं, हरित क्रांति का एक बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है। लोग अब विज्ञान के महत्व को समझने लगे हैं। भारतीय किसानो ने शीघ्रता से कृषि की नई तकनीक को अपनाया है। वे नये विचारों और तकनीकों को ग्रहण कर रहे हैं।
Q.2.कृषि में पैकेज कार्यक्रम से क्या अभिप्राय है?
Ans:नई कृषि राजनीति इस बात पर आधारित थी कि कृषि में विज्ञापन और प्रौद्योगिकी का व्यापक प्रयोग खाद्यान्नो के उत्पादन में प्रचुर मात्रा में वृद्धि के रूप में फलदायी हो सकता है। वर्ष 1961 में गहन कृषि जिला कार्यक्रम आरंभ किया गया। इसका उद्देश्य उन्नत औजार, साख, अधिक उपज वाले बीज, सुनिश्चित सिंचाई आदि को एक साथ मिलाकर कृषि की उत्पादकता को बढाना था। कार्यक्रम का अच्छा परिणाम निकाला। खाद्यान्नो के उत्पादन में तेजी से वृद्धि हुई। फिर इसका विस्तार बड़े क्षेत्रों में किया गया। इसे गहन कृषि कार्यक्रम का नाम दिया गया। छठे दशक के उत्तरार्द्ध में भारी उपज और सीमांत किसान और कृषि मजदूर विकास प्रमुख थे। इन कार्यक्रमो को उर्वरकों, कीटनाशकों, ऋण – सुविधाओं और सिंचाई सुविधाओं के साथ जोड़ा गया। अधिक उपज देने वाले बीजों के प्रयोग से खाद्यान्नों का उत्पादन काफी तेजी से बढ़ा। सन् 1977 – 78 में गेहूं का उत्पादन दुगुना हो गया। चावल का उत्पादन भी बढ़ना आरंभ हो गया धीरे-धीरे दलहन, ज्वार, मक्का और बाजरे के उत्पादन में भी तेजी से वृद्धि हुई। वर्ष 2007 – 08 में खाद्यान्नो का कुल उत्पादन 70 करोड़ 34 लाख टन रहा।
Q.3.भारत में कृषि संरचना पर संक्षेप में वर्णन कीजिए। प्रबल भू – स्वामियों से आपका क्या तात्पर्य है?
Ans:भारत में कृषि संरचना इस प्रकार है-
- भूमि का उचित विभाजन नहीं –ग्रामीण समाज में कृषि योग्य भूमि ही जीविका का एकमात्र महत्वपूर्ण साधन और संपत्ति का एक प्रकार है। लेकिन किसी विशिष्ट गांव या किसी क्षेत्र में रहने वालो के बीच इसका उचित विभाजन बिल्कुल नहीं है। लेकिन किसी विशिष्ट गांव या किसी क्षेत्र में रहने वालो के बीच इसका उचित विभाजन बिल्कुल नहीं है। न ही सभी के पास भूमि होती है। वास्तव में भूमि का विभाजन घरों के बीच बहुत असमान रूप से होता है। भारत के कुछ भागों में अधिकांश लोगों के पास कुछ – न – कुछ भूमि होती है। अक्सर जमीन का बहूत छोटा टुकड़ा होता है। कुछ दूसरे भागों में 40 से 50% परिवारों के पास कोई भूमि नहीं होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि उनकी जीविका या तो कृषि मजदूरी से या अन्य प्रकार के कार्यों से चलती है। इसका सहज अर्थ यह हुआ कि कुछ थोड़े परिवार बहुत अच्छी अवस्था में है। बड़ी संख्या में लोग गरीबी की रेखा के ऊपर या नीचे होते हैं।
- महिलाओं को जमीन का हक नहीं – उत्तराधिकार के नियमो और पितृवंशीय नातेदारी व्यवस्था के कारण, भारत के अधिकांश भागों में महिलाएं जमीन की मालिक नहीं होती है। कानून महिलाओं को परिवारिक संपत्ति में बराबर की हिस्सेदारी दिलाने में सहायता होता है। वास्तव में महिलाओं के पास बहुत सीमित अधिकार होते हैं, और परिवार का हिस्सा होने के नाते भूमि पर अधिकार होता है जैसे की मुखिया एक पुरुष होता है।
- कृषक वर्ग संरचना – भूमि स्वामित्व के विभाजन अथवा संरचना के लिए अक्सर कृषि संरचना शब्द का प्रयोग किया जाता है। क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि योग्य भूमि ही उत्पादन का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है, भूमि रखना ही ग्रामीण वर्ग संरचना को आकार देता है। कृषि उत्पादन की प्रक्रिया में आपको भूमि का निर्धारण मुख्य रूप से भूमि पर आपके अभिगमन से होता है। मध्यम और बड़ी जमीनों के मालिक साधारणत: कृषि से पर्याप्त अर्जन ही नहीं बल्कि अच्छी आय भी कर लेते हैं (हालांकि या फसलों के मूल्य पर निर्भर करता है जो कि बहुत अधिक घटता – बढ़ता रहता है, साथ ही अन्य कारणों जैसे मॉनसून पर निर्भर करता है) लेकिन कृषि मजदूरों को अक्सर निम्नतम निर्धारित मूल्य से कम दिया जाता है और वे बहुत कम अर्जन करते हैं। उनकी आमदनी निम्न होती है। उनका रोजगार असुरक्षित होता है। अधिकांश कृषि – मजदूर रोजाना दिहाडी कमाने वाले होते हैं और वर्ष में बहुत से दिन उनके पास कोई काम नहीं होता है। इसे बेरोजगारी करते हैं। समान रूप से काश्तकार या पट्टेदारी (कृषक जो भूस्वामी से जमीन पर लेता है) की आमदनी मालिक – कृषिको से कम होती है। क्योंकि वह जमीन के मालिक को यथेस्ट किराया चुकाता है – साधारणत: फसल से होने वाली आमदनी का 50 से 75% तक।
- जाति – व्यवस्था का बाहुल्य – कृषक समाज को उसकी वर्ग संरचना से ही पहचाना जाता है। परंतु हमें ये भी ध्यान रखना चाहिए कि यह जाति व्यवस्था के द्वारा संरचित होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में, जाति और वर्ग के संबंध बड़े जटिल होते हैं। ये संबंध हमेशा स्पष्टवादी नहीं होते। हम प्राय: यह सोचते हैं कि ऊंचे जातिवाले के पास अधिक भूमि और आमदनी होती है और यह की जाति और वर्ग में पारस्परिकता हैं, उनका संस्तरण नीचे की ओर होता है। कुछ क्षेत्रों में यह सही है लेकिन पूर्णरूपेण सत्य नहीं है। उदाहरण के लिए कई जगहों पर सबसे ऊंची जाति ब्राह्मण बड़े भूस्वामी नहीं है अतः वे कृषि संरचना से भी बाहर हो गए, हालांकि वे ग्रामीण समाज के अंग हैं। भारत के अधिकांश क्षेत्रों में भूस्वामित्व वाले समूह के लोग ‘ शुद्र या ‘क्षत्रिय’ वर्ण के हैं। प्रत्येक क्षेत्र में, सामान्यत: एक या दो जातियों के लोग ही भूस्वामी होते हैं, वे संख्या के आधार पर भी बहुत महत्वपूर्ण है। समाजशास्त्री एम. एन. श्रीनिवास ने ऐसे लोगों को प्रबल जाति का नाम दिया, प्रत्येक क्षेत्र में, प्रबल जाति समूह काफी शक्तिशाली होता है आर्थिक और राजनीतिक रूप से वह स्थानीय लोगों पर प्रभुत्व बनाए रखता है। उत्तर प्रदेश के जाट और राजपूत कर्नाटक के वोक्कालिगास और लिंगायत, आंध्र प्रदेश के कम्माम और रेड्डी और पंजाब के जाट सिख प्रबल भूस्वामी समूहों के उदाहरण है।
Q.4.भारत में भूमि सुधार का उद्देश्य बिचौलिये ( मध्यस्थों) को हटाना क्यों था?
Ans:ब्रिटिश शासकों ने जमीन से अधिकतम राजस्व प्राप्त करने के लिए तीन प्रकार की भूमि व्यवस्थाओं को प्रचारित किया – जमींदारी, रैयतवाड़ी तथा महालवाड़ी। जमींदारी व्यवस्था के अंतर्गत जमीन की संपत्ति का अधिकार स्थानीय लगान वसूलने वालो को दिया गया। वे जमींदार कहलाये। ये सामान्यत: ऊंची जातियों के सदस्य थे। इस नये बंदोबस्त ने वास्तविक किसानों को रैयत बना दिया। भूमि व्यवस्था के इस संरचनात्मक परिवर्तन ने राज्य एवं जमीन जोतने वालों के बीच बिचौलियों को खड़ा कर दिया। रैयतवाड़ी व्यवस्था के अंतर्गत बिचौलियों को मान्यता नहीं मिली। जमीन जोतने वालो को अपनी जमीन पर हस्तांतरण का अधिकार दिया गया। इस व्यवस्था के अंतर्गत भी प्रभावशाली रैयत शक्तिशाली भू – स्वामी के रूप में उभरे। महालवाड़ी प्रथा के अंतर्गत भी बिचोलियो का एक वर्ग उत्पन्न हो गया। इन मध्यस्थों की भूमि प्रबंधन और सुधार में कोई रुचि नहीं थी। जमींदारों को एक निश्चित राजस्व की राशि सरकार को देनी होती थी, परंतु किसानों से वसूली की कोई सीमा नहीं थी। इस व्यवस्था ने आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न को बढ़ाने का कार्य किया। स्वतंत्रता के पश्चात बिचौलियों का उन्मूलन करना भूमि सुधार का पहला लक्ष्य था। इस कार्यक्रम के द्वारा देश के सभी क्षेत्र में बिचौलियों जैसे जमींदारो आदि की समाप्ति करने का प्रयत्न किया गया। खेतिहर किसानों को राज्य के साथ प्रत्यक्ष रुप से जोड़ दिया गया। किसानों को भूमि के स्थायी अधिकार दे दिये गए। सन् 1954 – 55 तक सभी राज्यों ने भूमि सुधार कार्यक्रम के अंतर्गत बिचौलियों को हटा दिया। जमींदारों से भूमि लेकर जोतने वाले किसानों को सौंप दी गई।