किसान जमींदार और राज्य Kisan jamindar aur Rajya class 12 History Chapter 8 NCERT Solutions In Hindi

Kisan jamindar aur Rajya: किसान, जमींदार और राज्य: कृषि समाज और मुग़ल साम्राज्य (लगभग सोलहवीं और सत्रहवीं सदी तक)

Kisan jamindar aur Rajya: Important points

* सोलहवीं- सत्रहवीं के दौरान हिंदुस्तान में करीब- करीब 85 फीसद लोग गाँवों में रहते थे।

* छोटे खेतिहर और भूमिहर- संभ्रांत, दोनों ही कृषि उत्पादन से जुड़ें थे।

* सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रन्थ ‘आइन-ए-अकबरी’ जिसे अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुल फजल ने लिखा था।

* गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान व ईस्ट- इंडिया कंपनी के दस्तावेज भी इस काल के स्रोत है।

* रैयत- मुजरियान, खुद- कास्त, पाहि-कास्त-किसानों के लिए इस्तेमाल किये गए शब्द है।

* मानसून भारतीय कृषि की रीढ़ था।

* मौसम के दो मुख्या चक्रो के दौरान खेती की जाती थी। (1) पतझड़ में खरीफ तथा (2) बसंत में रबी ।

* कपास और गन्ने जैसी फसलें बेहतरीन ‘जींस-ए-कामिल'(सर्वोत्तम फसल) थी। तिलहन और दलहन भी नगदी फसल में आते थे। मध्य भारत एवं दक्खिनी पठार की जमीन पर कपास उगाई जाती थी। जबकि बंगाल चीनी के लिए मसूर था।

* ग्रामीण समुदाय में तीन घटक थे- खेतिहर किसान, पंचायत और गाँव का मुखिया( मुकदमा या मंडल)

* सत्रवीं सदी में मारवाड़ में लिखी गयी एक किताब राजपूतों की चर्चा किसानों के रूप में करती है।

* जिन गाँवों में कई जातियों के लोग रहते थे, वहाँ अक्सर पंचायतों में भी विविधता पायी जाती थी।

* कृषि समाज में महिलायें मर्दो के साथ कंधे-से-कंधे मिलाकर खेतों में काम तथा बुआई निराई और कटाई के साथ-साथ, पाकी हुयी फसलों का दाना निकालने का काम करती थी।

* ग्रामीण समाज में किसानों और दस्तकारों के बिच फर्क कारण मुश्किल होता था। क्योंकि कई ऐसे समूह थे, जो दोनों किस्म का काम करते थे। मसलन बुआई और सुहाई के बिच, सुहाई और कतई के बिच खेतिहर किसान दस्तकारी का काम करते थे।

* जमींदारों की समृद्धि की वजह थी उनकी विस्तृत व्यक्तिगत जमीन, इन्हें ‘ मिलकियत ‘ कहते थे, या निजी सम्पति।

* मुग़ल कालीन गांवों में सामाजिक संबंधों की कल्पना एक पिरामिड के रूप में की गयी थी।

* भू- राजस्व के इंतजामात के दो चरण थे- कर निर्धारण और वास्तविक वसूली ।

* इटली के एक मुसाफिर जोवन्नी करेरी, जो लगभग 1690 ई. में भारत से होकर गुजरा था ने इस बात का बड़ा सजीव चित्र पेस किया है की किस तरह चाँदी तमाम दुनियाँ से होकर भारत पहुँचती थी।

* ” छोटे गणराज्य ” जहाँ लोग सामूहिक स्तर पर भाई चारे के साथ संसाधनों और श्रम का बटवारा करते थे।

* आइन पांच भागों का संकलन है। जिसके पहले तीन भाग प्रशासन का विवरण देते है।

* कृषक ग्रामीण समाज का एक प्रमुख वर्ग था और उससे वसूलें गए राजस्व पर ही पूरा प्रशासन और राजतंत्र आधारित था।

* इस काल में जमीन की बहुतायत मजदूरों की मौजूदगी तथा किसानों की गतिशीलता के कारन कृषि का लगातार विस्तार हुआ। सिंचाई कार्यों को राज्य की मदद मिलती थी।

* पशुपालन और बागवानी में बढातें मुनाफे की वजह से अहीर, गुज्जर और माली जैसे जातियाँ सामाजिक सीढ़ी से ऊपर उठी।

* ग्राम पंचायत के अलावा गांव में हर जाती की अलग पंचायत होती थी।

* जजमानी- 18 वीं सदी के स्रोत बतातें है की बंगाल में जमींदार लुहार बढ़ई सुनारो आदि को उनकी सेवा के बदले रोज का भत्ता और खाने के लिए नगदी देते थे। इस व्यवस्था को जजमानी कहते थे।

* ताकतवर लोग गांव के मसलों पर फैसले लेते थे और कजोर वर्गों का सोसन करते थे।

* मनसबदारी व्यवस्था मुग़ल प्रशासनिक व्यवस्था के शिर्ष पर एक सैनिक नौकरशाही तंत्र (मनसबदारी) था जिस पर राज्य के सैनिक व् नागरिक मामलों की जिम्मेदारी थी।

* अकबर के शासनकाल में भूमि को चार वर्गों में बांटा गया था (1) पोलज- यह वह जमीन है जिसमे एक के बाद एक फसल की सालाना खेती होती है और जिसे कभी खाली नहीं छोड़ा जाता है। (2) परौती- यह वह जमीन है जिस पर कुछ दिनों के लिए खेती रोक दी जाती है ताकि वह अपनी खोया ताकत वापस पा सके। (3) चचर- यह वह जमीन है जो तीन या चार वर्षों तक खाली रहती है। (4) बंजर- यह वह जमीन है जिस पर पांच या उससे ज्यादा वर्षों तक खेती नहीं की गयी है।

किसान जमींदार और राज्य अति लघु उत्तरीय प्रश्न तथा उत्तर

Q.1.मुगलकाल मैं भू – राजस्व वसूली के कौन – से दो तरीके अपनाए गए?
Ans: जागीरदारी प्रथा तथा शाही पदाधिकारी द्वारा राजस्व की वसूली।

Q.2.आईने – दहसाला किसने जारी किया? और कब जारी किया?
Ans: आईने – दहसाला अकबर ने जारी किया। 1580 में।

Q.3. आइन – ए – अकबरी की रचना किसने की?
Ans: अबुल फजल ने आइन – ए – अकबरी की रचना की।

Q.4. खुद – कास्त किसे कहते थे?
Ans: जो किसान अपनी भूमि पर स्वयं खेती करते थे, उन्हें खुद – कास्त कहा जाता था। इनमें से कुछ के पास अपने हल और बैल होते थे। वे बंधी – बंधायी दरों पर लगान अदा करते थे।

Q.5. जब्ती किसे कहते हैं?
Ans: जब्ती प्रणाली के अनुसार किसान और सरकार के मध्य निश्चित अवधि के लिए एक समझौता ठेका हो जाता था।

Q.6. शेरशाह की भू – राजस्व व्यवस्था प्रमुखत: किस व्यवस्था पर आधारित थी?
Ans: शेरशाह की भू – राजस्व व्यवस्था प्रमुखत: रैयतवाड़ी व्यवस्था थी जिसके अंतर्गत किसानों का राज्य से सीधा संपर्क था।

Q.7. मुकद्दम कौन होता था?
Ans: मुकद्दम गांव का मुखिया होता था। अपनी सेवा के बदले में उसके द्वारा वसूले गए राजस्व में से 2.5 प्रतिशत हिस्सा से प्राप्त होता था।

Q.8. कनकूत का क्या अर्थ था?
Ans: कनकूत का अर्थ था- अनुमान करना। इस प्रणाली के अनुसार खेत में बड़ी फसल को देखकर अनुमान लगा लिया जाता था जिसके आधार पर फसल पकने पर सरकार अपना भाग ले लेती थी।

Q.9. बटाई अथवा गल्लाबख्शी का क्या अर्थ है?
Ans: यह भारतीय किसानों में सर्वाधिक प्रचलित प्रणाली थी जिसके अनुसार तैयार फसल को किसान गांव के मुकद्दम तथा अन्य सरकारी कर्मचारियों के सामने तीन भागों में विभक्त कर दिया जाता था। इसमें से एक भाग सरकार द्वारा राजस्व के रूप में ले लिया जाता था।

Q.10. कानूनगो के क्या कार्य थे?
Ans: कानूनगो परगने का स्थानीय राजस्व पदाधिकारी था और आमतौर से वह लेखपाल था। लेखा-जोखा करने वाले वर्गों या जातियों में से नियुक्त किया जाता था। कानूनगो राजस्व
रसीदो ,भूमि के माप संबंधी आंकड़ों ,स्थानीय राजस्व दरों और परगने के रीति-रिवाजों के सम्बद्ध कागजात को व्यवस्थित करके रखता था।

Q.11. इजारा शब्द की व्याख्या कीजिए।
Ans: ‘इजारा ‘ का अर्थ है – ठेके। ठेके पर भूमि देने से किसानों का विनाश हो जाता था, क्योंकि वर्षा की अनिश्चितता के कारण उचित और निश्चित उपज पैदा करना बहुत कठिन होता था।

Q.12. रेयत कौन थे ?
Ans: मुगल काल के भारतीय फारसी स्रोत किसान के लिए आमतौर पर रैयत या मुजरियान शब्द का इस्तेमाल करते थे।

Q.13. उत्तर भारत में किन किसानों को समृद्ध माना जाता था?
Ans: उत्तर भारत में 5 एकड़ से लेकर 10 एकड़ तक जमीन जिन किसानों के पास होती थी , उसे समृद्ध किसान माना जाता था।

Q.14. मंडल कौन होता था? इसकी नियुक्ति कैसे होती थी?
Ans: पंचायत का सरदार एक मुखिया होता था जिसे मुकद्दम या मंडल कहा जाता था मुखिया का चुनाव गांव के बुजुर्गों की आम सहमति से होता था और इस चुनाव के बाद उन्हें इसकी मंजूरी जमींदार से लेनी पड़ती थी। मंडल (मुखिया) अपने ओहदे पर तभी तक बना रहता था जब तक गांव के बुजुर्गों को उस पर भरोसा होता था।

Q.15. अकबर के शासन में भूमि का वर्गीकरण किस प्रकार किया गया?
Ans :अकबर के शासन में भूमि का वर्गीकरण – सम्राट अकबर ने अपने शासनकाल में गहरी दूरदर्शिता से भूमि का वर्गीकरण किया और भू – राजस्व निर्धारित किया –
(i) पोलज – वह भूमि है जिसमें एक के बाद प्रत्येक फसल की सालाना खेती होती है। यह भूमि कभी परती नहीं होती हैं।
(ii) परौती – वह भूमि जिस पर कुछ दिनों के लिए खेती रोक दी जाती है ताकि उसकी उर्वराशक्ति पूरी हो सके।
(iii) चचर – वह जमीन है जो तीन या चार वर्षों तक खाली रहती है।
(iv) बंजर – वह भूमि है जिस पर पांच या उससे ज्यादा वर्षों से खेती नहीं की गई हो। पहले दो प्रकार की जमीन की तीन किस्में हैं – अच्छी ,मध्य और खराब। वे प्रत्येक किस्म की भूमि के उत्पाद को जोड़ देते हैं और इसका तीसरा हिस्सा उत्पाद माना जाता है जिसका एक तिहाई हिस्सा शाही सुल्क माना जाता है।

किसान जमींदार और राज्य लघु उत्तरीय प्रश्न तथा उत्तर

Q.1. मुगलकाल में कृषि उत्पादन में किस प्रकार की सिंचाई व्यवस्था थी?
Ans: जिन इलाकों में प्रति वर्ष 40 इंच या उससे ज्यादा बारिश होती थीं, वहां कमोबेश चावल की खेती होती थीं। कम और कमतर बारिश वाले इलाको में क्रमश: गेहूं व ज्वार – बाजरे की खेती ज्यादा प्रचलित थी।
मानसून भारतीय कृषि की रीढ़ थी, जैसे कि आज भी है। लेकिन कुछ ऐसी फसलें भी थी जिनके लिए अतिरिक्त पानी की जरूरत थी। इनके लिए सिंचाई के कृत्रिम उपाय बनाने पड़े ।
सिंचाई कार्यों को राज्य की मदद भी मिलती थी। मसलन, उत्तर भारत में राज्य ने कई नयी नहरे व नाले खुदवाए और कई पुरानी नहरों की मरम्मत करवाई, जैसे की शाहजहां के शासनकाल के दौरान पंजाब में शाह नहर।

Q.2.भारतीय गांवो को ‘छोटे गणराज्य’ के रूप में किस प्रकार निरूपित किया जाता था?
Ans: 19वी सदी के कुछ अंग्रेज अफसरों ने भारतीय गांवों को एक ऐसे ‘छोटे गणराज्य ‘ के रूप में देखा जहां लोग सामूहिक स्तर पर भाईचारे के साथ संसाधनों और श्रम का बंटवारा करते थे। लेकिन ऐसा नहीं लगता कि गांव में सामाजिक बराबरी थी। संपत्ति की व्यक्तिगत मिल्कीयत होती थी, साथ ही जाति और जेंडर (सामाजिक लिंग) के नाम पर समाज में गहरी विशेषताएं थी। कुछ ताकतवर लोग गांव के मामलों पर फैसले लेते थे और कमजोर वर्गों का शोषण करते थे। न्याय करने का अधिकार भी उन्हीं को मिला हुआ था।
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह थी कि गांवों और शहरों के बीच होने वाले व्यापार की वजह से गांवों में भी नकद के रिश्ते फैल चुके थे। मुगलों के केंद्रीय इलाकों में कर की गणना और वसूली भी नकद में की जाती थी। जो दस्तकार निर्यात के लिए उत्पादन करते थे, उन्हें उनकी मजदूरी या पूर्ण भुगतान भी नकद में नहीं मिलता था। इसी तरह कपास, रेशमिया नील जैसी व्यापारिक फसलें पैदा करने वालों का भुगतान भी नकदी ही होता था।

Q.3. ‘मुगलकाल में फसलों में विविधता थी ?” विवेचना कीजिए।
Ans: मुगलकाल में फसलों में विविधता –
(i)मौसम के दो मुख्य चक्रों के दौरान कृषि की जाती थी – एक खरीफ (पतझड़ में ) और दूसरी रबी( बसंत में ) बंजर और सूखे स्थानों को छोड़कर अधिकांश जगहों पर वर्ष में दो फसलें होती थी।
(ii) अधिक वर्षा वाले क्षेत्र और सिंचित क्षेत्रों में वर्ष में तीन फसलें भी उगाई जाती थी।
(iii) इन कारणों से पैदावार में विविधता थी। जैसे आइन अनुसार दोनों मौसम मिलाकर मुगल प्रोत आगरा में 39 फसलों की खेती होती थी।
(iv) खाद्यान्नो के साथ-साथ नकदी फसलों की भी खेती की जाती थी।

Q.4. भारत में तंबाकू का प्रसार किस प्रकार हुआ?
Ans: भारत में तंबाकू प्रसार –
(i) यह पौधा सबसे पहले दक्कन पहुंचा और वहां से 17 वी शताब्दी के आरंभिक वर्षों से इसे उत्तर भारत लाया गया।
(ii) यद्यपि उत्तर भारत की फसलों की सूची में तंबाकू का जिक्र नहीं है, परंतु अकबर और उसके अलिजातो ने 1604 ई० में पहली बार तंबाकू देखा था।
(iii) संभवत: इसी समय तम्बाकू का धूम्रपान ( हुक्के या चिलम में) करने की लत शुरू हुई। जहांगीर इन बुरी आदत के फैलने से इतना चिंतित हुआ कि उसने इस पर पाबंदी लगा दी परंतु बेअसर रहा।
(iv) 17वीं शताब्दी के अंत तक तंबाकू पूरे भारत में खेती, व्यापार और उपयोग की मुख्य वस्तुओं में से एक था।

Q.5. किसान और जाति के संबंध को स्पष्ट कीजिए।
Ans: किसान – जाति संबंध –
(i) जाति जैसे अनके भेदभावो के कारण किसान कई समूहों में विभाजित थे।
(ii) खेतीहरो में एक बड़ी जनसंख्या ऐसे लोगों की थी जो नीच समझे जाने वाले कामों में लगे थे या फिर खेतों में मजदूरी करते थे। इस प्रकार वे गरीब रहने के लिए विवश थे। इन लोगों की तादाद अधिक थी। वे जाति – व्यवस्था के पाबंदियों से बंधे थे और इनकी दशा दलितों के समान थी।
(iii) इसका प्रभाव दूसरे संप्रदायों पर भी पड़ा। जैसा मुसलमानों में नीच काम करने वालों को हलाल खोरान कहा जाता था।
(iv) मध्यवर्ग के लोगों में इस प्रकार की स्थिति नहीं दिखाई देती। राजपूत जाट और अहीर, गुज्जर आदि जातियां इसी श्रेणी में थी। इनकी सामाजिक स्थिति अच्छी थी और ये भी किसान थे।

Q.6. मुगलकालीन सामाजिक दशा का वर्णन कीजिए।
Ans: सामाजिक दशा – इस काल में सामाजिक जीवन में इतने अधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुए जितने की राजनीति, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में हुए। परंतु इस क्षेत्र में फिर भी जो परिवर्तन हुए उनका विवरण नीचे दिया जा रहा है-
मुगल काल की सामाजिक दशा जानने के साधनों का अत्यंत अभाव है। केवल यूरोपीय यात्रियों के विवरण द्वारा ही हमें तत्कालीक मुगलकालीन समाज के बारे में थोड़ा – बहुत ज्ञान होता है। पेशे एवं आर्थिक दशा के अनुसार समाज तीन वर्गों में विभक्त था। इन तीन वर्गो के जीवन में जमीन – आसमान का अंतर था। जहां एक ओर उच्चवर्ग के लोग सुरा – सुंदरी में दिन-रात डूबे रहते थे वहीं दूसरी ओर निम्न वर्ग के लोगों को जीवन – निर्वाह के लिए कठिन परिश्रम करना पड़ता था।
(i) उच्च वर्ग – राजा के नीचे उच्च वर्ग के अमीर और ऊंचे अधिकारी आते थे। फ्रांस की सामंतो की तरह इनका जीवन बड़ा ऐश्वर्यपूर्ण था। समाज में इनको भांति – भांति के अधिकार एवं सम्मान प्राप्त थे। इनके जीवन का मुख्य उद्देश्य भोग – विलास था। जहां इनमें एक ओर विद्यानुराग, कला प्रेम तथा दानशीलता जैसे गुण विद्यमान थे वहां इनके चरित्र में अनेक दुर्बलताएं भी विद्यमान थी, जैसे इस्त्री और सुरा में लिप्त रहना, अहंकार, आपसी बैर तथा मानवता का अभाव आदि। अबुल फजल ने लिखा है कि सम्राट अकबर के हरम में 5000 स्त्रियां थी जिसका निरीक्षण एवं देखभाल एक विशेष प्रकार के अधिकारियों द्वारा होता था।
(ii) मध्यम वर्ग – इनकी संख्या उच्च वर्ग और निम्न वर्ग से कम थी। इस वर्ग में व्यापारी और सरकारी कर्मचारी आदि आते थे। इनका जीवन सादा था। पश्चिमी घाट के कुछ व्यापारी, जिन्हेंने पर्याप्त धन अर्जित कर लिया था, अपेक्षाकृत अधिक सुखमय जीवन व्यतीत करते थे।
(iii) निम्न वर्ग – निम्न वर्ग में साधारण सेवक, दस्तकार और निम्न श्रेणी के किसान एवं मजदूर आदि आते थे। इन्हें बहुत कम मजदूरी मिलती थी। फलत: इनका जीवन धन से उत्पन्न होने वाली बुराइयों से दूर था। निम्न वर्ग के लोगों का जीवन सीधा- सादा था और उनमें जागृति का प्रायः अभाव था। इसलिए वे चुपचाप अपना जीवन व्यतीत करते चले जाते थे।

Q.7. जाति की पंचायतों के क्या कार्य थे?
Ans:(i) ग्राम पंचायत के अलावा प्रत्येक जाति की अपनी पंचायत होती थी, जो पर्याप्त शक्तिशील होती थी।
(ii)राजस्थान में जाति पंचायतें अलग-अलग जातियों के लोगों के बीच दीवानी के झगडो का निपटारा करती थी। वे जमीन के झगड़ों को भी हल करती थी।
(iii) यह जातिगत मानदंडो के अनुसार शादियां तय करती थीं।
(iv) वे कर्मकांडीय वर्चस्व का निर्धारण करती थीं। अधिकांश मामलों में राज्य जाति पंचायत के फैसलो को स्वीकार करती थी।
(v) लोग उच्च जाति के लोगों और अधिकारियों के खिलाफ पंचायत को अर्जियां देते थे।

Q.8. पश्चिमी भारत के राज्यों के ग्रामीण समाज में महिलाओं की स्थिति कैसी थी?
Ans: राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र आदि पश्चिमी भारत के इलाको से मिले दस्तावेजों में ऐसी दरख्वास्त मिली है जो महिलाओं ने न्याय और मुआवजे की उम्मीद से ग्राम पंचायत को भेजी थी। पत्नियां अपने पतियों की बेवफाई का विरोध करती दिखाई देती है या फिर गृहस्थी के मर्द पर ये आरोप लगाती थी कि वे पत्नी और बच्चों की अनदेखी करता है। मर्दों की बेवफाई हमेशा दंडित नहीं होती थी; लेकिन राज्य और ‘ऊंची’ जाति के लोग अक्सर ये सुनिश्चित करने की कोशिश करते कि परिवार के भरण-पोषण का इंतजाम हो जाए। ज्यादातर जब महिलाएं पंचायत को दरख्वास्त देती, उनके नाम दस्तावेजों में दर्ज नहीं किए जाते। दरख्वास्त करने वाली का हवाला गृहस्थी के मर्द/ मुखिया की मां, बहन या पत्नी के रूप में दिया जाता था।

Q.9. मुगल राजनीतिक विचारधारा में न्याय को शिकार अभियान के साथ कैसे जोड़ा गया है?
Ans: मुगल राजनीतिक विचारधारा में गरीबों और अमीरों सहित सबके लिए न्याय करने का राज्य के गहरे सरोकार का एक लक्षण था – शिकार अभियान। दरबारी इतिहासकारों की मानें, तो शिकार अभियान के नाम पर बादशाह अपने विशाल साम्राज्य के कोने – कोने का दौर करता था और इस तरह अलग-अलग इलाकों के लोगों की समस्याओं और शिकायतों पर व्यक्तिगत रूप से गौर करता था। दरबारी कलाकारों के चित्रों में शिकार का विषय बार-बार आता था। इन चित्रों में चित्रकार अक्सर छोटा – सा एक ऐसा दृश्य डाल देते थे जो सद्भावनापूर्ण शासन का संकेत देता था।

Q.10. मनसबदारी प्रथा के दोष बताएं।
Ans: मनसबदारी प्रथा के दोष-
(i) मनसबदारो के सैनिकों को वेतन मनसबदार ही दिया करते थे। अतः वे बादशाह के प्रति निष्ठावान ना होकर अपने स्वामी मनसबदार के प्रति निष्ठवान थे।(ii) प्रत्येक मनसबदार अपने ढंग से अपनी सैनिक टुकड़ी की व्यख्या करता था। अतः इस प्रकार की सेना में एक राष्ट्रीय सेना के गुण तथा एकता की भावना न थी।
(iii) सैनिक अभियानों के समय एक मनसबदार अपनी सैनिक टुकड़ी का ही सफलतापूर्वक संचालन कर सकता था, किंतु विभिन्न टुकड़ियों का नेतृत्व करने की योग्यता उसमें नहीं होती थी।
(iv) आगे चलकर मनसबदारो ने सैनिकों की एक निश्चित संख्या रखनी छोड़ दी और निरीक्षण के समय वे भाड़े के टट्टुओ को प्रस्तुत करने लगे, जिससे राजकोष पर अनुचित बोझ पड़ा और आवश्यकता के समय पर्याप्त संख्या में सैनिक उपलब्ध न हो सके।
(v) मनसबदार अपने अधीन सैनिकों को निश्चित वेतन से कम वेतन देते थे और पशुओं आदि पर भी कम खर्च करते थे। इस प्रकार अवैध धन बचाकर वह विलासी तथ वैभवपूर्ण बन गए थे। फिर उनके उनके मरने पर उनकी संपत्ति पर उनके उत्तराधिकारियों का अधिकार ना था, अत: वे फिजूल खर्च करते थे। यह बात आगे चलकर मुगल साम्राज्य के पतन का एक मुख्य कारण सिद्ध हुई है।
(vi)औरंगजेब की मृत्यु के बाद मनसबदार विद्रोह करने लगे। बादशाह का सैनिकों के साथ कोई सीधा संबंध न था। कई बार राजकुमार मनसबदार के साथ मिलकर सिंहासन प्राप्ति के लिए विद्रोह कर देते थे।
(vii) चूंकि मनसबदारों को प्रशासनिक एवं सैनिक दोनों प्रकार के कार्य करने पड़ते थे, अत: वे न तो पूर्णतया कार्यों में दक्ष होते थे और न सैनिक कार्यों में ही।

किसान जमींदार और राज्य दीर्घ उत्तरीय प्रश्न तथा उत्तर

Q.1. मुगलकालीन ग्रामीण समाज के कृषि क्रिया – कलापों की जानकारी हमें किन – किन स्रोतों से मिलती है?
Ans: 16वी और 17वी सदियों के कृषि इतिहास को समझने के लिए हमारे मुख्य स्रोत में ऐतिहासिक ग्रंथ व दस्तावेज है जो मुगल दरबार की निगरानी में लिखे गए थे।
सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथों में एक था ‘आइन – ए – अकबरी’ जिसे अकबर के दरबार के इतिहासकार अब्दुल फजल ने लिखा था। खेतों की नियमित जुताई की तसल्ली करने के लिए राजा के नुमाइंदे द्वारा करो कि उगाही के लिए और राज्य व ग्रामीण सत्तापोशो यानी कि जमींदारों के बीच के रिश्तो के नियमन के लिए जो इंतजाम राज्य ने किए थे, उसका लेखा-जोखा इस ग्रंथ में बड़ी सावधानी से पेश किया गया है।
आइन का मुख्य उद्देश अकबर के साम्राज्य का एक ऐसा खाका पेश करना था जहां एक मजबूत सत्ताधारी वर्ग सामाजिक मेल – जोल बना कर रखता था। आइन के लेखक के मुताबिक मुगल राज्य के खिलाफ कोई बगावत या किसी भी किस्म की स्वायत्त सत्ता की दावेदारी का असफल होना पहले ही तय था। दूसरे शब्दों में, किसानों के बारे में जो कुछ हमें अइन से पता चलता है, वह सत्ता के ऊंचे गलियारों का नजरिया है।
खुशकिस्मती से अइन की जानकारी के साथ – साथ हम उन स्रोतों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं जो मुगलों की राजधानी से दूर के इलाकों में लिखे गए थे। इनमें 17वी व 18वीं सदीयो के गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान से मिलने वाले वे दस्तावेज शामिल है वो सरकार की आमदनी की विस्तृत जानकारी देते हैं। इसके अलावा, ईस्ट इंडिया कंपनी के बहुत सारे दस्तावेज भी है जो पूर्वी भारत में कृषि – संबंधों का उपयोगी खाका पेश करते हैं। ये सभी स्रोत किसानों, जमींदारों और राज्य के बीच तने झगड़ो को दर्ज करते हैं। लगे हाथ ये स्रोत यह समझाने में हमारी मदद करते हैं कि किसान राज्य को किस नजरिये से देखते थे और राज्य से उन्हें कैसे न्याय की उम्मीद थी।

Q.2. मुगलकाल में किस प्रकार की फसलें उगाई जाती थी? भारतीय उपमहाद्वीप में आने वाली नयी फसलें कौन-कौन सी थी?
Ans: मौसम के दो मुख्य चक्रों के दौरान खेती की जाती थी – एक खरीफ (पतझड़ में) और दूसरी रबी (वसंत में)। यानी सूखे इलाकों और बंजर जमीन को छोड़ दें तो ज्यादातर जगहों पर साल में कम – से – कम दो फसलें होती थी। जहां बारिश या सिंचाई के अन्य साधन हर वक्त मौजूद थे, वहां तो साल में तीन फसलें भी उगाई जाती थी। इस वजह से पैदावार में भारी विविधता पाई जाती थी। उदाहरण के तौर पर, आइन हमें बताती है कि दोनों मौसम मिलकर, मुगल प्रांत आगरा में 39 किस्म की फसलें उगाई जाती थी, जबकि दिल्ली प्रांत में 43 फसलों की पैदावार होती थी। बंगाल में सिर्फ चावल की 50 किस्में पैदा होती थी।

हालांकि दैनिक आहार की खेती पर ज्यादा जोर दिया जाता था, मगर इसका मतलब यह नहीं था कि मध्यकालीन भारत में खेती सिर्फ गुजारा करने के लिए की जाती थी। स्रोतों में जिन्स – ए – कामिल (सर्वोत्तम फसलें) जैसे लफ्ज मिलते हैं। मुगल राज्य भी किसानों को ऐसी फसलों की खेती करने के लिए बढ़ावा देता था क्योंकि इससे राज्य को ज्यादा कर मिलता था। कपास और गन्ने जैसी फसलें बेहतरीन जिन्स – ए – कामिल थी। मध्य भारत और दक्कनी पठार में फैले हुए जमीन के बड़े-बड़े टुकड़ों पर कपास उगाई जाती थी, जबकि बंगाल अपनी चीनी के लिए मशहूर था। तिलहन (जैसे – सरसों) और दलहन भी नकदी फसलों में आती थीं। इनसे पता चलता है कि एक औसत किसान की जमीन पर किस तरह पेट भरने के लिए होने वाले उत्पादन और व्यापार के लिए किए जाने वाले उत्पादन एक – दूसरे से जुड़े हुए थे।
17 वी सदी में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से कई नयी फसलें भारतीय उपमहाद्वीप पहुंची। मसलन, मक्का भारत में अफ्रीका और स्पेन के रास्त आया और 17 वी सदी तक इसकी गिनती पश्चिम भारत की मुख्य फसलों में होने लगी। टमाटर, आलू और मिर्च जैसी सब्जियां नई दुनिया से लाई गई। इसी तरह अनानास और पपीता जैसे फल वहीं से आए।

Q.3. मुगल काल में ग्रामीण दस्ताकारों की भूमिका का वर्णन करें।
Ans: अंग्रेजी शासन के शुरुआती वर्षों में किए गए गांवों के सर्वेक्षण और मराठोओ के दस्तावेज बताते हैं कि गांवों में दस्तकार काफी अच्छी तादाद में रहते थे। कहीं-कहीं तो कुल घरों के 25 फ़ीसदी घर दस्तकारों के थे।
कभी-कभी किसानों और दस्ताकारों के बीच फर्क करना मुश्किल होता था, क्योंकि कई ऐसे समूह थे जो दोनों किस्म के काम करते थे। खेतिहर और उसके परिवार के सदस्य कई तरह की वस्तुओं के उत्पादन में शिरकत करते थे। मसलन, रंगरेजी, कपड़े पर छपाई, मिट्टी के बर्तनों को पकाना, खेती के औजारों को बनाना या उनकी मरम्मत करना। उस महीनों में जब उनके बीच या सुहाई और कटाई के बीच उस समय ये खेतिहर दस्तकारी का काम करते थे। कुम्हार, लोहार, बढई नाई यहां तक कि सुनार जैसे ग्रामीण दस्तकार भी अपनी सेवाएं गांव के लोगों को देते थे जिसके बदले गांव वाले उन्हें अलग-अलग तरीकों से उन सेवाओं की अदायगी करते थे। आमतौर पर या तो उन्हें फसल का एक हिस्सा दे दिया जाता था या फिर गांव की जमीन का एक टुकड़ा, शायद कोई ऐसी जमीन जो खेती लायक होने के बावजूद बेकार पड़ी थी। अदायगी की सूरत क्या होगी? ये शायद पंचायत ही तय करती थी। महाराष्ट्र में ऐसी जमीन दस्तकारों की मिरार या वतन बन गई जिस पर दस्तकारो का पुश्तैनी अधिकार होता था।
यही व्यवस्था कभी-कभी थोड़े बदले हुए रूप में भी पायी जाती थी जहां दस्तकार और हरेक खेतिहर परिवार परस्पर बातचीत करके अदायगी की किसी एक व्यवस्था पर राजी होते थे। ऐसे में आमतौर पर वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय होता था। उदाहरण के तौर पर ,18वीं सदी के स्रोत बताते हैं कि बंगाल में जमींदार उनकी सेवाओं के बदले लोहारों, बढ़ई और सुनारो तक को ‘रोज का भत्ता और खाने के लिए नकदी देते थे।” इस व्यवस्था को जामीन कहते थे।

Q.4. मनसबदारी प्रथा की विशेषताएं बताईये।
Ans: मनसबदारी प्रथा की विशेषताएं/गुण :(i) इससे जागीरदारी प्रथा समाप्त हो गए और विद्रोहो की संभावना कम हो गई। प्रत्येक मनसबदार अपना मासिक वेतन प्राप्त करने के लिए सम्राट के सामने उपस्थित होता था। मनसबदारो पर बादशाह का सीधा नियंत्रण होता था।
(ii) मनसब योग्यता के आधार पर दिए जाते थे। अयोग्य सिद्ध होने पर उन्हें उनके पद से हटा दिया जाता था। मनसबदार की मृत्यु होने पर उसका बेटा अपने पिता के मनसब का अधिकारी न था, मनसब का पद पैतृक या वंशानुगत ना था एवं योग्य मनसबदार के लिए पदोन्नति के द्वार खुले रहते थे।
(iii) जागीरदारों को बड़ी – बड़ी जागीरे देने से राज्य को जो आर्थिक हानि उठानी पड़ती थी उससे वह बच गया।
(iv) इस प्रथा से यह भी एक लाभ था कि राजपूत मनसबदार, मध्य ऐतिहासिक मंगोलो, उजबेगो तथा कटुता भरे अफ़गानों के विरुद्ध संतुलन – सा बनाए रखा गया।
(V) मनसबदारो ने कला तथा साहित्य को संरक्षण तथा प्रोत्साहन दिया। कई साहित्यकार तथा कलाकार उनके संरक्षण में रहते थे।
(vi) मनसबदारो को सैनिक संबंधी विभिन्न प्रकार का उत्तरदायित्व सौंपकर मुगल सरकार अनेक प्रशासनिक परेशानियों से निश्चित हो गए।
(vii) मनसबदारी प्रथा देश में सांस्कृतिक समन्वय लाने में भी सहायक सिद्ध हुई, क्योंकि इसमें विभिन्न जातियों, धर्मो तथा वर्गों के लोग शामिल थे।

Q.5. मुगलकाल में जमींदारों की स्थिति का वर्णन कीजिए।
Ans: जमींदार और उनके वर्ग – तत्कालीन इतिहासकरो और अबुल फजल के लेखों से प्रतीत होता है कि भारत में व्यक्तिगत स्वामित्व की प्रथा बहुत पुरानी थी। समय पाकर भूमि स्वामित्व संबंधी कई कानून भी बने। साधारण तौर पर भूमि उसी की होती थी, जो पहली बार उसे जोतता था क्योंकि उस समय विशाल भूखंड ऐसे ही पड़े रहते थे जो प्राय: बंजर होते थे इसलिए उत्साही लोगों का झुंड उन्हें खेती योग्य बना लिया करता था और अपना गांव भी बना लेता था। अत: वही लोग उस जमीन के मालिक बन जाया करते थे। जमींदार लोग अपने इलाके से लगान वसूल किया करते थे जो कि उनका वंशानुगत अधिकार माना जाता था। जिस क्षेत्र-विशेष में या जिस सीमा के अंदर वे लगान वसूल करते थे उस स्थान को ‘ताल्लूका’ या उसकी ‘जमीनदारी’ के नाम से पुकारा जाता था।साधारणत: 5 से 10 प्रतिशत एकत्रित भूमि कर का भाग जमींदारी को प्राप्त होता था, कभी-कभी इसकी सीमा 25% भी हो जाती थी। यह भाग उनका एक तरह का कमीशन कहां जा सकता है। भूमि पर कोई स्वामित्व अधिकार नहीं होता था। यहां स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि किसान को भूमि से तब तक अलग नहीं किया जा सकता था तब तक वह अपना लगान देता रहता था।
जमींदारों के ऊपर राजा लोग होते थे। ये जमींदारों से ऊपर होते थे, परंतु फारसी लेखको ने इन्हें भी जमींदार ही कहा है। परंतु क्योंकि इन्हें कुछ आंतरिक स्वतंत्रता होती थी अत: इनकी स्थिति जमींदारों से हट कर होती थी.
जमींदारों का महत्व – जमींदार लोग अपनी सेना भी रखते थे और साधारणतया किलो एवं गढ़ीयो मैं रहते थे जो उनकी हैसियत और शक्ति का प्रतीक होने के साथ-साथ आवश्यकता के समय शरण – स्थल के रूप में भी काम आते थे। बुल फजल के अनुसार इन जमींदारों एवं राजाओं की सेना कुल मिलाकर लाखों तक पहुंच जाती थी। साधारणतया इन जमींदारों का अपनी जमीनदारी में रहने वाले किसानों से जाति एवं कबिलो का संबंध होता था। इसीलिए इन जमींदारों का किसानों पर काफी प्रभाव होता था। आर्थिक दृष्टि से भी ये पूजा लोग काफी संपन्न होते थे। इसीलिए जमींदार वर्ग समय के साथ-साथ शक्तिशाली बन गया था। ऐसे में कोई भी योग्य शासन उनकी अवहेलना करने या उनकी शत्रुता मोल लेने का प्रयत्न नहीं करता था।

जमींदारों का जीवन – स्तर – प्राय: छोटे जमींदार अपनी सीमित आय के कारण किसानों जैसा ही जीवन-यापन करते थे, परंतु बड़े जमींदारों की ठाट-बाट छोटे राजाओ और सरदारों से किसी भी तरह से कम नहीं होती थी। अधिकांश जमींदार गांव में ही रहते थे और वे लोग कुलीन वर्ग की श्रेणी में आते थे।

साधारणत: बहुत-से जमींदार भले लोग होते थे और किसानों के सुख-दुख में भागीदार होते थे, परंतु समय पड़ने पर जमीनदारी के बदले जाने से वे उत्तरोत्तर अत्याचारी बनते गए। इन्हीं की वजह से कभी-कभी किसानों को अपनी भूमि से भी हाथ धोना पड़ता था और कभी-कभी महाजनों से कर्ज लेने के लिए उन्हें मजबूर होना पड़ता था ताकि उन्हें भूमि से बेदखल न होना पड़े। क्योंकि भूमि ही किसान का पैतृक सम्मान और जीविका का साधन था। इसलिए हर कीमत पर उन्हें अपनी भूमि को बचाना होता था। ऐसे अत्याचारी जमींदार सुरा-सुंदरी मैं डूबे रहते थे और किसानों का शोषण करते थे। क्योंकि वे किसानों के हृदय मैं सदा भय पैदा किये रहते थे अत: वे आदर के पात्र न बन सके।


Kisan jamindar aur Rajya: Questions Answers

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