मीराबाई का प्रारंभिक जीवन
Mirabai ka jivan parichay: मीराबाई श्री कृष्ण के एक महान भक्त थी। मीराबाई का जन्म 1498 ईस्वी को राजस्थान में मेड़ता के निकट कुड़की नामक गांव में हुआ था। मीराबाई के पिता का नाम रतन सिंह राठौड़ और माता का नाम वीर कुमारी थी। मीराबाई के पिता जी रतना सिंह राठौर एक जमींदार थे। मीराबाई के दादा जी का नाम राव दूदा था। मीराबाई का जन्म एक राजपूत परिवार में हुआ था। मीराबाई अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। मीरा जब एक छोटी बच्ची थी तभी उनकी माता का निधन हो गया था। जिस कारण मीराबाई का पालन – पोषण उनके दादा जी के देख – रेख में हुआ था। मीराबाई के दादा जी विष्णु भगवान के एक बहुत बड़े उपासक थे तथा एक योद्धा के साथ-साथ भक्त हृदय भी थे। राव दूदा विष्णु भक्त होने के कारण इनके यहां साधु – संतों का आना-जाना लगा रहता था। जिस कारण मीराबाई बचपन से ही साधु-संतों और धार्मिक लोगों के संपर्क में रहती थी। इस प्रकार मीराबाई का झुकाव अध्यात्मिक की तरफ हो गयी। मीराबाई एक राजवंश होने के कारण उनको वेद पुराण आदि धर्म ग्रंथों तथा संगीत शिक्षा के साथ ही तीर तलवार आदि शस्त्र चालन, घुड़सवार तथा रथ चलाने की शिक्षा भी दी गई थी। मीराबाई घर के कामों के साथ-साथ अस्त्र – शस्त्र चलाने में भी निपुण थी। मीराबाई बचपन से ही कृष्ण को अपना पति मानती थी तथा मीराबाई कृष्ण से अनंत प्रेम करती थी। मीराबाई का आवाज जन्म से ही मिठी और सुरेली थी। इन सब गुणों के साथ-साथ मीराबाई अत्यंत आकर्षक और रूपवती थी।
मीराबाई का विवाह: Mirabai ka jivan parichay
मीराबाई का विवाह महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज सिंह के साथ 1516 ईस्वी को मेवाड़ में संपन्न हुआ था। उस समय मेवाड़ के युवराज भोजराज थे। इन दोनों का वैवाहिक जीवन खुशी से व्यतीत हो रहा था। मीराबाई और भोजराज के बिच अत्यंत प्रेम था, परंतु इन दोनो के बिच कोई सारारिक संबंध नही था। भोजराज मीराबाई के कृष्ण के प्रति भक्ति का बहुत सम्मान करते थे। भोजराज ने मीराबाई के लिए महल के बीचों बिच श्री कृष्ण का एक भव्य मंदिर का निर्माण किया। मीराबाई बहुत खुश थी,पर ये खुशियां ज्यादा दिनो तक नहीं रही। विवाह के 2 साल के पश्चात 1518 ई० वी० में भोजराज को दिल्ली सल्तनत के खिलाफ युद्ध में जाना पड़ा। महाराणा सांगा और मुगल शासक बाबर के बीच 1521 ई० वी० में युद्ध हुआ। इस युद्ध में राणा सांगा की हार हुई इस युद्ध को खानवा युद्ध के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध में राणा सांगा और उनके पुत्र भोजराज की मृत्यु हो गई। भोजराज के मृत्यु के पश्चात मीराबाई बिल्कुल अकेली पड़ गई। भोजराज के मृत्यु से मीराबाई को बहुत घातक चोट पहुंची थी। उस समय की प्रचलित प्रथा के अनुसार पति के मृत्यु के पश्चात मीराबाई को उनके पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया, परंतु मीराबाई इसके लिए तैयार नहीं हुई। मीराबाई धीरे-धीरे संसार से विरक्त हो गयी।
मीराबाई को मारने की षड्यंत्र
मीराबाई को कृष्ण भक्त में नाचना और गाना राजपरिवारों के अनुसार शोभनिय नही था। मीराबाई के ससुराल वालों ने भोजराज के मृत्यु के पश्चात मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की थी। मीराबाई को मारने के लिए एक टोकरी में सांप रखकर मीराबाई के पास भेज दिया, पर वह सांप एक माला में परिवर्तित हो गया। मीराबाई को मारने के लिए इनके ससुराल वालों ने कई षड्यंत्र रचे पर एक भी सफल नहीं हो पाया, क्योंकि मीराबाई की प्राणों की रक्षा स्वयं श्रीकृष्ण कर रहे थे। उन सब के षड्यंत्रों को विफल करके मीराबाई के प्राणों की रक्षा कर रहे थे।
मीराबाई की कृष्ण भक्ति
भोजराज के मृत्यु के पश्चात मीराबाई की भक्ति श्री कृष्ण के प्रति दिनों – दिन बढ़ती गई। मीराबाई अक्सर मंदिरों में जाकर मूर्ति के पास श्री कृष्ण भक्तों के सामने नाचती और गाती रहती थी। मीराबाई स्वयं को अगले जन्म की गोपियां कहती है। जिस प्रकार गोपियां श्री कृष्ण से प्रेम करती थी। उसी प्रकार मीराबाई भी श्रीकृष्ण से अत्यंत प्रेम करती थी। मीराबाई श्रीकृष्ण को तन – मन से अपना पति मान चुकी थी। मीराबाई दिन-रात बस कृष्ण के भक्ति में लीन रहती थी। मीराबाई चित्तौड़ छोड़कर मेड़ता चली गई। कुछ समय के पश्चात मेड़ता में जोधपुर के शासकों ने अपना अधिकार कर लिया। इसके पश्चात मीराबाई बज्र की तीर्थ यात्रा पर निकल पड़ी। मीराबाई लगभग सन् 1539 मैं वृंदावन में रूप गोस्वामी से मिली। मीराबाई को हर जगह सम्मान मिलती थी। मीराबाई वृंदावन में कुछ समय निवास करने के पश्चात द्वारिका चली गई। कृष्ण भक्ति में लीन होने।
मीराबाई की रचनाएं: Mirabai ka jivan parichay
मीराबाई ने स्वयं से कुछ नहीं लिखी थी। मीराबाई श्री कृष्ण के प्रेम में जो गाया करती थी वहीं बाद में पद में संकलित हो गया।
- गीत गोविंद की टीका,
- राग गोविंद,
- राग सोरठ के पद,
- नरसीजी का मायारा,
- मीरा पदावली,
- मीराबाई की मल्हार।
भाषा शैली : Mirabai ka jivan parichay
मीराबाई के काव्य में मीराबाई के हृदय के समान सरलता तरलता और निरछलता स्पष्ट रूप से प्रकट होती है। मीराबाई के सभी पद संगीत के स्वरों में बंधे हुए हैं।मीराबाई के पदों में ब्रज भाषा राजस्थानी भाषा का प्रयोग किया गया है। मीराबाई के गीतों में उनकी आवेशपूर्ण आत्माभिव्यक्ति देखने को मिलती है। मीराबाई ने गीत काव्य की रचना की तथा उन्होंने कृष्ण भक्त कवियों की परंपरागत पदशैली को अपनाया। मीराबाई के कविता उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हैं।
मीराबाई की मृत्यु
मीराबाई कृष्ण के भक्ति में लीन रहती थी। मीराबाई कुछ दिनों तक वृंदावन में रहने के पश्चात द्वारिका चली गई। मीराबाई द्वारिका में कृष्ण भक्ति करने लगी। मीराबाई सन् 1547 ईस्वी में द्वारिका के मंदिर में श्री कृष्ण के मूर्ति के सामने द्वार बंद करके नाचने गाने लगी। दूसरे दिन जब मंदिर के द्वार खोले गए तब मीराबाई वहां नहीं मिली। मीराबाई श्री कृष्ण के मूर्ति में समा गई।