वेदों और उपनिषदों की मूल अवधारणा पर प्रकाश डालिए। Philosophy UG Semester 3 BBMKU

वेदों और उपनिषदों की मूल अवधारणा: भारत की सांस्कृतिक और दार्शनिक परंपरा अत्यंत प्राचीन, समृद्ध और विविधता से भरपूर रही है। इस परंपरा की नींव जिन ग्रंथों पर टिकी हुई है, वे वेद और उपनिषद हैं। ये न केवल धार्मिक ग्रंथ हैं, बल्कि इनमें जीवन, जगत, आत्मा, ब्रह्म और मोक्ष जैसे जटिल विषयों पर भी गहन चिंतन किया गया है। वेदों को श्रुति ग्रंथ माना जाता है, अर्थात् यह वह ज्ञान है जो परमात्मा से ऋषियों को प्राप्त हुआ। उपनिषद इन्हीं वेदों का दार्शनिक सार हैं, जो आत्मा और ब्रह्म के संबंध को स्पष्ट करते हैं।

वेदों की मूल अवधारणा की चर्चा करें तो सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि ‘वेद’ शब्द का अर्थ होता है – ज्ञान। वेद चार हैं – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।

  • ऋग्वेद सबसे प्राचीन है और इसमें मुख्यतः देवताओं की स्तुतियाँ (सूक्त) हैं।
  • यजुर्वेद में यज्ञों की विधियाँ हैं।
  • सामवेद संगीत प्रधान है, जो यज्ञों में गाये जाने वाले मंत्रों पर आधारित है।
  • अथर्ववेद में जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, औषधि, गृहस्थ जीवन और लोकधर्म की बातें मिलती हैं।

हर वेद के चार भाग होते हैं – संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद। इनमें संहिता मंत्रों का संग्रह है, ब्राह्मण यज्ञ विधियों का विस्तार है, आरण्यक ध्यान-साधना से जुड़ा हुआ है और उपनिषद में दार्शनिक विचार प्रस्तुत किए गए हैं।

अब यदि उपनिषदों की बात करें तो ये वेदों का अंतिम और सबसे गूढ़ भाग माने जाते हैं। इन्हें वेदांत भी कहा जाता है। ‘उपनिषद’ शब्द का अर्थ होता है – “गुरु के समीप बैठकर जो ज्ञान प्राप्त किया जाए।” उपनिषदों में कर्मकांडों की अपेक्षा आत्मचिंतन और आत्मज्ञान को प्रमुखता दी गई है। इनका मुख्य उद्देश्य ब्रह्म और आत्मा के संबंध को स्पष्ट करना है। उपनिषदों में यह बताया गया है कि ब्रह्म ही परम सत्य है और आत्मा उसी का अंश है। इस विचार को अद्वैतवाद कहते हैं, जिसमें माना गया है कि आत्मा और ब्रह्म अलग नहीं, बल्कि एक ही हैं।

उपनिषदों में ब्रह्म को निराकार, निर्विकारी, सर्वव्यापक और अनंत माना गया है। आत्मा को अविनाशी बताया गया है। संसार को माया कहा गया है, जो अस्थायी और भ्रमात्मक है। मोक्ष को जीवन का अंतिम लक्ष्य माना गया है, जो तभी संभव है जब आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान ले और ब्रह्म से एक हो जाए।

उपनिषदों के कुछ प्रसिद्ध वाक्य, जो इस दर्शन को स्पष्ट करते हैं, निम्नलिखित हैं –

  • “अहं ब्रह्मास्मि” (मैं ही ब्रह्म हूँ)
  • “तत्त्वमसि” (तू वही है)
  • “नेति नेति” (न यह, न वह – ब्रह्म की अपारता को दर्शाने वाला कथन)

इन वाक्यों से यह स्पष्ट होता है कि उपनिषद आत्मा और ब्रह्म की एकता की स्थापना करते हैं। वे व्यक्ति को बाह्य कर्मकांडों से ऊपर उठाकर आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करते हैं।

वेद और उपनिषदों का मूल अंतर यह है कि वेदों में कर्म प्रधान है, जबकि उपनिषदों में ज्ञान प्रधानता रखता है। एक ओर वेदों में यज्ञ, मंत्र, देवता और धर्म की बातें हैं, वहीं उपनिषदों में आत्मा, मोक्ष, ब्रह्म और माया जैसे गूढ़ विषयों की व्याख्या मिलती है।

निष्कर्षतः, यह कहा जा सकता है कि वेद और उपनिषद भारतीय आध्यात्मिक और दार्शनिक चेतना की रीढ़ हैं। वेदों ने जहाँ समाज को धार्मिक और नैतिक दिशा दी, वहीं उपनिषदों ने व्यक्ति को आत्मज्ञान की ओर अग्रसर किया। दोनों मिलकर भारतीय संस्कृति और विचारधारा की गहराई और व्यापकता को दर्शाते हैं। आज भी इन ग्रंथों की प्रासंगिकता बनी हुई है, क्योंकि ये न केवल धर्म का मार्ग दिखाते हैं, बल्कि एक श्रेष्ठ और विचारशील जीवन जीने की प्रेरणा भी देते हैं।

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