कुषाण वंश का संक्षिप्त नोट्स: यह नोट्स इतिहास स्नातक के विधार्थियों के लिए उपयोगी है। बिनोद बिहारी महतो कोयलांचल विश्वविद्यालय से अध्ययन करने वाले विधार्थियों के लिए विशेष महत्वपूर्ण है। इतिहास स्नातक नोट्स के लिए झारखण्ड पाठशाला को जरुर फॉलो करें।
कुषाण वंश 15 ईस्वी से 151 ईस्वी तक।
- पर्थियायियों के पश्चात कुषाणों का शासन स्थापित हुआ।
- युची नामक एक कबीला था। यह कबीला पाँच भागों में विभाजित था। कुषाण इन्ही कुलो में से एक था। उनका साम्राज्य अमु दरिया से गंगा तक, मध्य एशिया के खुरासान से उत्तर प्रदेश के वाराणसी तक फैला था।
- कुषाणों ने पूर्व सोवियत गणराज्य में शामिल मध्य एशिया का बड़ा भाग, ईरान का हिस्सा, अफगानिस्तान और लगभग सम्पूर्ण उत्तर भारत के भू-भाग को अपने शासन के अधीन कर लिया।
- आरंभिक कुषाण शासकों ने बड़ी संख्या में स्वर्ण मुद्राओं को जरी किया। उनकी स्वर्ण मुद्राएँ धातु की शुद्धता में गुप्त शासकों की स्वर्ण मुद्राओं से उत्कृष्ट थी। कुषाणों को सर्वाधिक ताम्र सिक्के चलने का श्रेय जाता है।
- मथुरा में कुशनों के सिक्के, अभिलेख, संरचनाएँ और मूर्तियाँ मिली है, इससे प्रतीत होता है की मथुरा भारत में कुषाणों की द्वितीय राजधानी थी।
- किषणों की पहली राजधानी आधुनिक पाकिस्तान में अवस्थित पुरुषपुर या पेशावर में थी।
कुषाण वंशावली: राजधानी पाटलिपुत्र/विदिशा
- कुजुल कडफिसेस (15- 65 ईo): इसे कुषाण वंश का संथापक माना जाता है। भारत में सर्वप्रथम इसी ने पश्चिमोत्तर प्रदेश पर आक्रमण किया ओर इसपर अधिकार कर लिया। कुजुल कडफिसेस ने रोमन सिक्कों की नक़ल कर के ताँबे के सिक्के ढलवाये। इसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी।
- विम कडफिसेस (65-78 ईo): यह कुजुल कडफिसेस का पुत्र था जो अपने पिता के मृत्यु के पश्चात् सिंहासन पर बैठा। चीनी ग्रन्थ हाऊ-शु से ज्ञात होता है की, उसने तिएन-चु की विजय की तहत वहाँ पर अपने एक सेनापति को शासन करने के लिए नुयुक्त किया। इसने सिन्धु नदी पार करके तक्षशिला और पंजाब पर अधिकार कर लिया। यह भारत में कुषाण शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। इसने सोने व ताँबे के सिक्के चलवाए। उसके सिक्कों पर एक ओर यूनानी लिपि तथा दूसरी ओर खरोष्ठी लिपि अंकित है। इसके सिक्कों पर शिव की आकृति, नन्दी बैल और त्रिशूल अंकित हैं, जो उसके शैव धर्म में आस्था का द्योतक है। उसने महेश्वर की उपाधि धारण की थी। भारत में सर्वप्रथम स्वर्ण सिक्के चलने का श्रेय विम कडफिसेस को जाता है।
- कनिष्क (78-105 ईo): कनिष्क ने अपनी राजधानी पुरुषपुर में 400 फीट ऊँचा 13 मंजिलों का एक मीनार बनवाया, जिसके ऊपर एक लौह छत्र भी स्थापित किया गया तथा उसके समीप में एक विशाल संघाराम विहार निर्मित किया गया था। संघाराम कनिष्क के चैत्य के नाम से प्रसिद्ध है जिसका निर्माण यवन वास्तुकार अगिलस द्वारा किया गया था। कनिष्क ने कश्मीर में कनिष्कपुर तथा तक्षशिला के सिरकप में एक नए नगर की स्थापना की थी। कनिष्क सर्वाधिक विख्यात कुषाण शासक था। इतिहास में दो कारणों से उसका नाम प्रसिद्ध है- पहला, उसने 78 ई. में एक संवत् चलाया, जो शक संवत् कहलाता है। दूसरा, उसने बौद्ध धर्म का मुक्त हृदय से संपोषण व संरक्षण किया। कनिष्क का चीन के शासक पान-चाओ से युद्ध हुआ जिसमें पहले कनिष्क की पराजय हुई परन्तु बाद में वह विजयी हुआ। कनिष्क ने पार्श्व की सलाह पर बौद्धों की चतुर्थ संगीति का आयोजन कश्मीर के कुण्डलवन विहार में किया था जिसकी अध्यक्षता वसुमित्र तथा उपाध्यक्षता अश्वघोष ने की थी। इस बौद्ध संगीति में बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय को अन्तिम रूप दिया गया। कनिष्क, कला और संस्कृत साहित्य का भी महान संरक्षक था। कनिष्क की राज्यसभा अनेक योग्य विद्वानों से सुशोभित थी। इनमें पार्श्व, वसुमित्र और अश्वघोष जैसे बौद्ध दार्शनिक थे। नागार्जुन जैसे प्रकांड पंडित और चरक जैसे चिकित्सक कनिष्क की राज्य सभा से सम्बंधित थे। कनिष्क का पुरोहित संघरक्ष था।
- वासिष्क प्रथम
- हुविष्क
- कनिष्क द्वितीय
- वसुदेव प्रथम
- कनिष्क तृतीय
- वसुदेव द्वितीय: यह कुषाण वंश का अंतिम शासक था।
कुषाणकालीन भवन और मृदभांड
शक-कुषाण काल में भवन निर्माण के कार्यों में उल्लेखनीय प्रगति हुई। पक्की ईंटों का प्रयोग फर्श बनाने में किया गया। खपरैल (टाईलों) का प्रयोग फर्श और छत दोनों में किया गया। कुषाणकाल का प्रमुख मृद्भांड लाल बर्तन हैं, जो सफेद और पॉलिशदार है तथा बनावट में मध्यम से उत्तम तक हैं। इसके अतिरिक्त फुहारों और टोटियों वाले पात्र असाधारण हैं। इस काल की प्रमुख विशेषता ईंटों के कुओं का निर्माण है।
उत्कृष्ट अश्वारोही सेना
उन्होंने बड़े पैमाने पर उत्तम अश्वारोही सेना और अश्वारोहण की परंपरा चलाई तथा लगाम और जीन का प्रयोग प्रचलित किया। शक और कुषाण विलक्षण अश्वारोही थे। अफगानिस्तान के बेगराम में कुषाण काल की पकी मिट्टी की घुड़सवारों की मूर्तियाँ मिली हैं, जिनसे घुड़सवारी में उनकी गहरी रूचि प्रदर्शित होती है। वे रस्सी से एक प्रकार का अँगूठा-रकाब लगाते थे, जिससे उन्हें घुड़सवारी में सुविधा होती थी। शकों और कुषाणों ने पगड़ी, ट्यूनिक (कुरती), पाजामा और भारी लंबे कोट चलाए। मध्य एशिया के लोगों ने यहाँ टोपी, शिरस्त्राण और बूट चलाए, जिनका प्रयोग योद्धा करते थे।
कुषाण वंश व्यापार एवं खेती
भारत को मध्य एशिया के अल्ताई पहाड़ों से प्रचुर मात्रा में सोना प्राप्त हुआ था। कुषाणों ने रेशम के उस प्रख्यात मार्ग पर नियंत्रण कर लिया, जो चीन से प्रारम्भ होकर कुषाण साम्राज्य में शामिल मध्य एशिया एवं अफगानिस्तान से गुजरते हुए ईरान जाता था, तथा यह मार्ग पूर्वी भूमध्यसागरीय अंचल में रोमन साम्राज्य के अधीन पश्चिम एशिया में भी जाता था। यह रेशम मार्ग कुषाणों की आय का बड़ा स्रोत था तथा वे इस मार्ग पर व्यापारियों से उगाही गई चुंगी के कारण ही विशाल व समृद्ध साम्राज्य स्थापित कर सके। भारत में व्यापक पैमाने पर सोने के सिक्के चलाने वाले प्रथम शासक कुषाण ही थे। कुषाणों ने खेती को बढ़ावा दिया। कुषाण काल की विस्तृत सिंचाई के पुरातात्विक अवशेष पाकिस्तान, अफगानिस्तान और पश्चिमी मध्य एशिया में पाए जाते हैं।
कुषाण वंश राज्य व्यवस्था
कुषाण शासकों ने महाराजाधिराज की गौरवपूर्ण उपाधि धारण की। शकों और कुषाणों ने इस भावना को बढ़ावा दिया कि राजा देवता का अवतार होता है। कुषाण शासक देवपुत्र कहलाते थे। यह उपाधि कुषाणों ने चीनियों से ली, जो अपने शासक को स्वर्ग का पुत्र कहते थे। कुषाणों ने राज्य-शासन में क्षत्रप प्रणाली चलाई। साम्राज्य अनेक क्षत्रपियों (उपराज्यों) में विभक्त कर दिया गया तथा प्रत्येक क्षत्रपी एक-एक क्षत्रप के शासन में छोड़ दिया गया। कुछ अनोखी प्रथाएँ प्रारम्भ की गईं जैसे दो आनुवंशिक राजाओं का संयुक्त शासन, जिसमें एक ही समय, एक ही राज्य पर दो शासकों का शासन हो सकता था। यूनानियों ने सेनानी-शासन (मिलिटरी गवर्नरशिप) की परिपाटी चलाई। इसके लिए शासक सेनानियों की नियुक्ति करते थे, जो यूनानी भाषा में स्ट्रेटोगोस कहलाते थे।
धार्मिक विकास
यूनानी राजदूत हेलियोडोरस ने मध्य प्रदेश में स्थित विदिशा (वर्तमान में विदिशा जिले का मुख्यालय) में ईसा-पूर्व लगभग दूसरी सदी के मध्य में वासुदेव की आराधना के लिए एक स्तंभ बनवाया। वासुदेव से विष्णु का बोध होता है। प्रख्यात यूनानी शासक मिनान्डर बौद्ध हो गया। बौद्धाचार्य नागसेन उर्फ नागार्जुन के साथ हुआ उसका प्रश्नोत्तर मौर्योत्तर काल के बौद्धिक इतिहास का एक प्रमुख स्रोत है। कुषाण शासक शिव और बुद्ध दोनों के उपासक थे, तद्नुसार कुषाण मुद्राओं पर इन दोनों देवताओं के चित्र मिलते हैं।
बौद्ध महायान संप्रदाय का उद्भव: आन्ध्र प्रदेश के नागार्जुनकोंडा के मठ-क्षेत्रों से अत्यधिक मात्रा में सिक्के मिले हैं। तपस्वी की तरह जीवन व्यतीत करने वाले भिक्षुओं और भिक्षुणियों के दैनिक जीवन के नियमों में सरलता आई। अब वे सोना-चाँदी का प्रयोग करने लगे, मांस खाने लगे और उत्तम कपड़े पहनने लगे थे। बौद्ध धर्म का यह नया रूप महायान कहलाया। बौद्ध धर्म में मूर्ति-पूजा का आरम्भ होने से मूर्ति-पूजा ब्राह्मण समुदायों में भी मनाने लगे। महायान का उदय होने पर बौद्ध धर्म का पुराना शुद्धचारी (प्यूरिटन) संप्रदाय हीनयान कहलाने लगा। कनिष्क महायान का महान संरक्षक हो गया।
गांधार और मथुरा शैली
कुषाण साम्राज्य ने विभिन्न शैलियों के प्रशिक्षित राजमिस्त्रियों और अन्य कारीगरों को एकत्र किया। इससे कला की नई शैलियाँ विकसित हुईं, जैसे गांधार और मथुरा शैली। मथुरा कला के सर्वप्रथम संरक्षक कुषाण थे, जबकि गांधार कला के संरक्षक शक और कुषाण दोनों थे। गांधार कला यथार्थवादी जबकि मथुरा कला आदर्शवादी है। भारत के पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त गांधार का मध्य एशियाई और रोमन शिल्पकारों के साथ संपर्क हुआ जिसके परिणामस्वरूप मूर्तिकला की नई शैली का उदय हुआ, जिसमें बुद्ध की प्रतिमाएँ भारत और रोम की मिश्रित शैली में बनाई गईं। बुद्ध के बाल यूनान-रोमन कला शैली में बनाए गए थे। गांधार कला का प्रभाव मथुरा में भी पहुँचा, हालाँकि यह मूलत: देशी कला का केन्द्र था।
मथुरा में बुद्ध की अद्भुत प्रतिमाएँ बनीं, परन्तु इस जगह की ख्याति कनिष्क की शिरोहीन खड़ी मूर्ति को लेकर है, जिसके निचले भाग में कनिष्क का नाम उत्कीर्ण है। मूर्तिकला की मथुरा शैली ई. सन् की आरम्भिक सदियों में विकसित हुई तथा इसकी लाल बलुआ पत्थर की मूर्तियाँ मथुरा के बाहर भी प्राप्त होती हैं। महाराष्ट्र में चट्टानों को काटकर सुन्दर बौद्ध गुफाएँ बनाई गईं। आन्ध्रप्रदेश में नागार्जुनकोंडा और अमरावती बौद्ध कला के महान केन्द्र हो गए, जहाँ बुद्ध के जीवन की अनेक कथाएँ पट्टों पर चित्रित की गई हैं। बौद्ध धर्म से सम्बंधित सबसे पुराने पट्टचित्र गया, साँची और भरहुत में पाए जाते हैं, जो ईसा पूर्व दूसरी सदी के हैं।
कुषाण वंश साहित्य एवं विद्या
काव्य शैली का पहला नमूना रुद्रदामन का काठियावाड़ में जूनागढ़ अभिलेख है, जिसका समय लगभग 150 ई. है। अश्वघोष को कुषाणों का संपोषण प्राप्त था। यह कनिष्क का राजकवि था। अश्वघोष ने बुद्ध की जीवनी बुद्ध चरित के नाम से लिखी। उसने सौन्दरानन्द नामक काव्य लिखा, जो संस्कृत काव्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। यूनानियों ने पर्दे का प्रचलन आरम्भ कर भारतीय नाट्यकला के विकास में योगदान दिया। चूँकि परदा यूनानियों की देन थी, इसलिए यह यवनिका के नाम से जाना जाता था। वात्स्यायन का कामसूत्र धार्मिकेत्तर साहित्य का सबसे अच्छा उदाहरण है। यह रतिशास्त्र या कामशास्त्र की प्राचीनतम् पुस्तक है, जिसमें रति और प्रीति का विवेचन किया गया है। चरक संहिता तथा भरतमुनि का नाट्य शास्त्र इसी काल में लिखा गया। दूसरी सदी ई. में पतंजलि ने महाभाष्य की रचना की। नागार्जुन कनिष्क की राजसभा में थे। नागार्जुन ने प्रज्ञापारमिता की रचना की जिसमें शून्यवाद, सापेक्षवाद का प्रतिपादन किया गया है।
विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी
मौर्योत्तर काल में यूनानियों के संपर्क से खगोल और ज्योतिष शास्त्र में प्रगति हुई। संस्कृत ग्रंथों में हमें ग्रह-नक्षत्रों के संचार सम्बंधी अनेक यूनानी शब्द मिलते हैं। यूनानी शब्द होरोस्कोप संस्कृत में होरोशास्त्र हो गया, जिसका अर्थ संस्कृत में फलित ज्योतिषशास्त्र होता है। यूनानी शब्द द्रक्म भारत में द्रम्म हो गया। यूनानी शासकों ने ब्राह्मी लिपि चलाई तथा अपने सिक्कों पर अनेक भारतीय रूपांक (मोटिफ) चलाए। कुत्ते, मवेशी, मसाले और हाथी दाँत की वस्तुएँ यूनानी लोग यहाँ से बाहर भेजते थे। चरकसंहिता में उन अनगिनत वनस्पतियों के नाम हैं, जिनसे रोगों की चिकित्सा के लिए दवाइयाँ बनाई जाती थीं। रोगों के इलाज में प्राचीन भारतीय वैद्य लोग मुख्यतः पौधों पर ही निर्भर थे, जिन्हें संस्कृत में औषधि कहते हैं तथा इससे बनी दवा औषध कहलाती है। चमड़े के जूते बनाने का प्रचलन भारत में संभवतः इसी काल से आरम्भ हुआ। भारत में प्रचलित तांबे के कुषाण कालीन सिक्के रोमन सिक्कों की नकल थे। इसी प्रकार भारत में कुषाणों ने जो सोने के सिक्के ढलवाए, वे रोमन स्वर्णमुद्राओं की नकल थी। सन् 27-28 में रोमन सम्राट् ऑगस्ट्स और सन् 110-120 ई. में रोमन सम्राट् ट्रॉजन के दरबार में भारत से राजदूत भेजे गए थे। इस काल में शीशे के काम पर विदेशी तकनीकी और तरीकों का विशेष रूप से प्रभाव पड़ा।